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वर्तमान जैन मुनि परम्परा
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स्थानकवासी सम्प्रदाय
(प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास ) स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के प्रारम्भिक और उनके मत को एक नया मोड़ दिया । यदि उसी एवं प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में पृष्ठ १०६-१०८ नये मोड़ को ही वर्तमान स्थानकगसी सम्प्रदाय का में संक्षिप्त विवेचन दिया जा चुका है। अतः यहाँ उस प्रारम्भकाल माना जाय तो अधिक युक्ति संगत रहेगा। प्राचीन परम्परा से वर्तमान स्थानकवासी मुनि समुदाय ये पाँव महापुरुष थे:-(१) पूज्य श्री जीवराजजी महासे सम्बन्ध जोड कर वर्तमान स्थानकवासी मुनिवरों राज (२) पूज्य श्री धर्म सिंहजोमहाराज, (३) पूज्य श्री के नाम आदि दे रहे हैं।
लवजी ऋषिजी महाराज (४) पूज्य श्री धर्मदासजी ___ स्थानकवासी सम्प्रदाय के निर्माता धर्मवीर महाराज एवं (५) पूज्य श्री हरजी ऋषिजी महाराज । लौकाशाह माने जाते हैं पर सत्य वस्तु यह है कि
पूज्य श्री जीवराजजी म० लौकाशाह ने तत्कालीन युग में एक धर्म क्रान्ति आपका जन्म सूरत में श्रावण शुक्ला १४ सं० अवश्य की एवं मूर्ति पूजा का विरोध कर स्वयं किसी १५८१ को वीरजी भाई की धर्म परायणा भार्या श्री के पास दीक्षित न होकर मात्र एक सफल उपदेशक केसरबाई की कुक्षी से हुआ। सं० १६०१ में पूज्य श्री के रूप में वे रहे। उनके उपदेशों से प्रभावित हो ४५ जगाजी यति के पास दीक्षा ली। कुछ समय के बाद व्यक्ति उनके परम भक्त बने और जिन्होंने बाद में ही तत्कालीन यति मार्ग के प्रति श्रापको तीव्र असंतोष अपने समूह का नाम 'लौ कागच्छ' रक्खा और यति होने लगा और आपने धर्म संरक्षकों की इस अवस्था अवस्था में शुद्धाचार पालने लगे।
में जबरदस्त क्रियोद्धार करने का दृढ़ संकल्प किया । लौंकाशाह के १०० वर्ष बाद तक यही यति रूप गुरु का प्रबल विरोध होते हुए भी आपने सं० १६०८ चलता रहा बल्कि वे गादी धारी यतियों के रूप में में पाँच साधुओं के साथ लेकर पाँच महाव्रत युक्त रहने लगे । लौ कागच्छ के दम पाट पर यति वज्रांग आहती दीक्षा ग्रहण कर ली। श्राहेती दीक्षा लेने के जी हुए। उनको गादी सूरत में थी। उनमें काफो पश्चात् शास्त्रानुसार नये साधु भेष का निरुपण शिथिलता आगई थी अतः उनके समय में लौकागच्छ किया, श्वेताम्बर साधुओं के लिये चौदह उपकरणों की इस अवस्था का काफी विरोध हुआ और कई में से केवल वस्त्र पात्र मुहरतो, रजोहरण, रजस्त्राण कियोद्धारक महान व्यक्ति अयतीणे हुए।
एव प्रमार्जिका को ही धारण किया अन्य सबका त्याग सोलहवीं सदी के उत्तराध एवं सतरहवीं सदी में किया । आगमों के विषय में लौकाशाह की ही बात पाँच महा पुरुष विशेष प्रख्यात हुए जिन्होंने लौकाशाह स्वीकार को परन्तु आवश्यक सूत्र को भी प्रामाणिक द्वारा प्रचलित धर्म क्रान्ति को पुनः क्रान्तिमय बनाया मानकर ४१ के बदले ३२ भागम माने । यही मान्यता
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