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जैन श्रमण संघ का इतिहास
स्व० पन्यासजी श्री धर्मविजयजी गणी पूज्य पन्यासजी श्री मोहनविजयजी गणिवर से पारने
सं० १६५२ आषाढ सुदी १३ को दीक्षा अंगीकार कर मुनि मार्ग में प्रवर्तित हुए।
प्रवज्या के बाद अल्पकाल में ही आपने जैना गमों, न्याय व्याकरण आदि ग्रन्थों का पांडित्य पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर जैन जगत् में चमक उठे। आप एक प्रख्यात आध्यात्मिक मुनि के रुप में "आत्मानदी" के नाम से पहचाने जाने लगे। आप बाल ब्रह्मचारी थे। ब्रह्मचर्य का तेज, वाणी माधुर्य और व्याख्यान कुशलता से आगन्तुक आकर्षित हुए बिना नहीं रहता हा। ऐसे में अगर उसे आपके श्री मुख से सुमधुर आध्यात्मिक भजन सुनने का सौभाग्य मिल जाता तो वह हृदय विभोर हो गद् गद् हो उठता था।
सं० १६६२ मिगसर सुदी १५ के दिन पूज्य पंडित
मुनि श्री दयाविमल जी म० के शुभ हस्त से डेहलाना महान् आध्यात्मिक एवं तपोनिष्ठ स्वर्गीय पूज्य उपाश्रय राजनगर में योगोद्वहन पूर्वक श्रापको पन्यास पन्यासजी श्री धर्म विजयजी गणिवर का नाम जैन पद विभाषित किया गया। जगत् में आज भी बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया आपकी विशिष्ठ प्रतिभा और प्रख्याती से प्ररित जाता है।
हो जैन संघ ने सं० १६७५ में आपश्री को आचार्य पद ___आपका जन्म पाटन (गुजरात) के समीपस्थ विभूषित करना चाहा पर आपने ऐसा स्वीकार नहीं थरा नामक ग्राम में सं० १६३३ पौष वदी १४ को हुआ' किया। पिता का नाम सेठ मयाचंद मंगल चंद तथा माता सं० १६६० में राजनगर में हुए श्री अखिल का नाम मिरांतबाई और जन्म नाम धर्म चंद था। भारतीय श्वे. मूर्तिपूजक साधु सम्मेलन में आपश्री
आप बाल्यकाल से ही बडे गुण ग्राही साधु का अच्छा सहयोग रहा। सम्मेलन के दिनों में ही प्रकृति के गंभीर विचारवान वैरागी महानुभाव थे। आपको श्वास रोग ने आ घेरा। वहीं से स्वास्थ्य बड़े संगीत प्रेमी थे। संकीत गान में आध्यात्मिक गिरता गया और अन्त में सं०१६६० चैत्र वदी ७ के भजन गाने का बड़ा चाव था। इनकी आध्यात्मिक दिन राजनगर में स्वर्ग सिधारे। भजन गान में यह तल्लीनता ही इनकी जीवनाधार आपश्री द्वारा संरक्षित डेहलाना उपाश्रय में बनी और आप में वैराग्य भावना उत्तरोत्तर बलवती हजारों प्राचीन ग्रन्थोंका भंडार उस महा विभति की याद बनती गई । अन्ततः उस समय सिद्ध क्षेत्र में विराजित दिलाकर आल्हादित बनाता है।