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जैन श्रमण सौरभ
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानाचार्य आचार्य सम्राट् पूज्य श्री
आत्मारामजी महाराज
आपका जीवन अहिंसा, सत्य, जप, तप, वेराभ्य, संयम, क्षमा, करुणा, दया, प्रेम, उदारता तथा सहिष्णुता का मंगलमग सजीव प्रतीक है। आपका व्यक्तित्व महान् तथा विराट है। आपके जीवन में जीवन के सभी मार्मिक तत्वों का पूर्ण सामन्जस्य उपलब्ध होता है
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आपका जन्म सम्वत् १६३६ भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को रहों (जिला जलन्धर) में हुआ था । पिता रहों के प्रसिद्ध व्यापारी सेठ मन्सारामजी चौपड़ा थे । मातेश्वरी श्री परमेश्वरी देवी थी ।
आप आठ ही वर्ष के थे कि माता-पिता का छत्र सिर से उठ गया । आपकी दम वर्ष आयु में दादीजी भी चल बसीं ।
माा, पिता तथा स्नेहमयी दादी के वियोग से व्यापका बचपन खेदखिन्न रहने लगा था, संसार का ऐश्वर्य' और वैभव फीका सा लग रहा था ! मन घर में रहना नहीं चाहता था। एक बार आपको लुधि• याना आना पड़ा । लुधियाना में उस समय पूज्य श्री जय रामदासजी म० तथा श्री शालिगरामजी महाराज विराजमान थे। मुनियुगल के दर्शन से आपके प्रशान्त मन को कुछ शान्ति मिली। धीरे-धीरे मुनि राजों के सम्पर्क से मन वैराग्य के महासरोवर में गोते खाने लगा. और अन्त में सम्वत् १६५१ अषाढ़ शुक्ला पंचमी को बनूढ़ (पंजाब) में आप श्रद्वय श्री स्वामी शालिग्रामजी के म. चरणों में दीक्षित हो गये ।
आगम महारथी, पूज्य श्री मोतीरामजी महाराज के चरणों में हमारे आचार्य सम्राट के बाल मुनि
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जीवन ने शास्त्राभ्यास करना शुरू किया । इन्ही की कृपा-छाया तले बैठकर आपने आगमों के महासागर का मन्थन किया । आगमों के अतिरिक्त आप उच्चकोटि के वैयाकरणी, नैयायिक तथा महान् दार्शनिक हैं। आपकी इसी ज्ञानाराधना के परिणामस्वरूप पंजाब के प्रसिद्ध नगर अमृतसर में सम्वत् १६६६ फागुण मास में स्वर्गीय श्राचार्यप्रवर पूज्य श्री सोहनलालजी महाराज ने आपको 'उपाध्याय' पद से विम्षित किया ।
आपकी उच्चत्ता, महता तथा लोकप्रियता दिनप्रतिदिन व्यापकता की ओर बढ़ रही थी। आपकी विद्वता ने, आपके चरित्र ने समाज के मानस पर अपूर्व प्रभाव डाला। उसी प्रभाव का शुभ परिणाम था कि आचार्यवर पूज्यश्री काशीरामजो महाराज के स्वर्गवास के अनन्तर सम्वत् २००३ लुधियाना की पुण्य भूमि में चैत्र शुक्ला प्रयोदशी को पंजाब का आचायपट आपको अर्पित किया गया ।
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आचार्य श्री का महान् व्यक्तित्व पंजाब में ही नहीं चमक रहा था, प्रत्युत पंजाब से बहार भी आशातीत सम्मान पा रहा था। सं० २००१ का वृहद् साधु समेलन, सादड़ी इस सत्य का ज्वलन्त उदाहरण सादडी महासमेलन में हमारे पूज्यश्री वृद्धावस्था कारणउपस्थित नहीं हो सके थे, तथापि सम्मेलन में उपस्थित सभी पूज्य मुनिराजों ने एकमत से "प्रधानाचार्य " के पद पर आचार्य देव को ही स्वीकार किया। एक ही जीवन में उपाध्यायत्वं भाषाय और प्रधानाचार्यत्व की प्राप्ति करना माध्यत्मिक
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