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जैन श्रमण-सौरभ
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ग्राम लुहारी (मेरठ) में दीक्षा ग्रहण की। आपने दादरी, महेंद्रगढ़, नारनौल, सिंघाणा, आगरा आदि क्षेत्रों में चौमासा किया और कई नये जैन बनाये ।
सं० १६६६ माघ मस में आपने प्रिय शिष्य पं० श्री ज्ञानचन्दजी महाराज को शहर दादरी में दीक्षा दी। सं० १६७७ में आपके गुरुश्रीजी का शहर बडौत में स्वर्गवास हो गया। सं० १६८० माघ शुक्ला ५ को आपके पास सिंघाणा में मुनि श्री खुशहालचन्दजी म० ने दीक्षा ग्रहण की। सं० १६८५ में आप पंजाब पधारे छः वर्ष तक पंजाब में विचर कर खूब धर्मोद्योत किया ।
सं० १६६३ आप राक्सहेडा ग्राम में पधारे आपके आने से पहले यहां के मुसलमान लोगों ने गौमाता आदि पशुओं की अस्थी (हड्डी) आदि जमुनाजी मैं डालने लग गये थे, वहां की जनता कहने लगी कि मुनाजी इस ग्राम पर रुष्ट हो रही है । वह ग्राम को डूबोने के लिये दिन प्रति दिन ग्राम की तरफ बढ़ती आरही है, ग्राम खतरे में है आदि । इस पर आपने ग्रामवासियों को धर्म करने का विशेष जोर दिया । व्रत बेला तेला अठाई व्रत बाबिल आदि अत्यधिक तपस्या होने से जमुनाजी जो ग्राम से एक फरलॉग पर थी अब तीन मील दूर चली गई । इस धर्म के अपूर्व चमत्कार को देखकर ग्राम निवासी धर्म में अतीव दृढ़ हो गये ।
आप यहां दादरी के श्री संघ की प्रार्थना को स्वीकार कर सं० २००६ वैशाख शुक्ला १ शुक्रवार को शिष्य मंडली के साथ सुख साता पूर्वक पधार गये थे और छः सात वर्ष से चरखी दादरी में स्थाना पति है । इस समय सं० २०१६ में आपकी
१२ वर्ष की है। दीक्षा पर्याय ७६ वर्ष की है स्थानकवासी जैन समाज में सबसे बडी आपकी ही दीक्षा है | आपको शास्त्रों का गहन ज्ञान है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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पूज्य मुनि श्री कपूरचन्द्रजी म०
पूज्य श्री कपूरचन्द्रजी महाराज का जन्म वि. सं. १६५५ चैत्र शुदि १३ के दिन जम्मू राज्यान्तर्गत " परगोवाल" ग्राम में क्षत्रिय कुल के शिरोमणि श्री भोपतसिंहजी की धर्मपत्नी सौभाग्यवती श्रीमत की कुक्षी से हुआ | आपने गुरु प्रवर श्री नत्थूरामजी महाराज की सद् प्रेरणा से प्रेरित होकर १८ वर्ष की अवस्था में स० १६७३ आश्विन शुक्ला तृतीया रविवार को "जेजों" नगर (पंजाब) में जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण कर त्याग मार्ग के अनुगामी बने ।
तत्पश्चात् श्रपने आचार्य सम्राट पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज की सेवा में रह आगमाध्ययन तथा, अनेक विद्य ज्ञान प्राप्तकिया ।
शांत-दान्त, सत्य, सन्तोष, तब-त्याग, क्षमाशील ज्ञान, विज्ञान सच्चारित्र चयन, अध्यवसायी अनेकानेक सुगुण सम्पन्न समझ कर पंजाब स्थानकवासी जैन संघ ने १५ जनवरी सन् १६५० को कैथलशहर, में आचार्य पद प्रदान किया ।
जिस समय श्वेताम्बर स्थानकवासी समस्त जैन समाज ने सब सम्प्रदायों का एकीकरण करके भ्रमण संघ बनाने का निश्चय किया तो उस समय महाराज श्री ने भी जैन समाज के बड़े २ नेताओं के निवेदन पर आपका अनेक प्रश्नों में विभिन्नता होते हुए भी आपने पूर्ण त्याग तथा उदारता का परिचय देते हुए जैन समाज के उत्थानार्थ अपनी 'आचार्य पदव का त्याग निसंकोच कर दिया और आज स्था० म श्रमण संघ के पूज्य मुनिवर हैं। इसी प्रकार जीवन में आपने कई महत्वपूर्ण कार्य किये हैं। कई ऐसे. क्षेत्र जो कि धर्म से विमुख हो रहे थे, उनमें नथ जीवन संचार कर उनको धर्म के मार्ग पर क्षम्या । उदाहरण स्वरूप भणि माजरा, सर्दूलगढ़, सोनीपत मंडी इत्यादि क्षेत्रों को ले सकते हैं। जिनको इन्होंने धर्म रूपी अमृत वर्षा से सिचित किया ।
आपके दो शिष्य हैं, धर्मोपदेशक पंडितार्क सुनि श्री निर्मलचन्द्रजी महाराज तथा श्री कवि जी महाराज | दोनों अपने तप त्याग में सुरद होकर गुरुदेव की सेवा कर रहे हैं ।
प्रेषक - वागीश्वर शर्मा, झिंझाना (९० प्र०)
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