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जैन श्रमण- सौरभ
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वृहद् खरतरगच्छीया साध्वी शिरोमणि श्री सुवर्णश्रीजी म. का जीवन परिचय
अहमदनगर निवासी ओसवाल जाति भषण श्रीमान् सेठ योगादाजी बोहरा एक बड़े ही व्यापार कुशल सज्ज थे । उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती दुर्गादेवी था ! वे बड़ी ही सच्चरित्रा, धर्म-परायणा, उदार और आदर्श पतिव्रता थीं। इन्ही देवी जो के गभ सं सं० १६२७ को ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन हमारी चरित्र - नायिका ने शुभ जन्म ग्रहण किया, बालिका के अद्भुत रूप लावण्य देख कर ही माता पिता ने उसका नाम “सुन्दरबाई" रखा । सुन्दरबाई केवल रूप में हो सुन्दर नहीं थी, बल्कि उसमें गुण भी बहुत से थे। बचपन से ही वह बढी उदार और उच्चभावापन्न थी । विद्या-लाभ करने की ओर भी उसकी बचपन से ही रुचि और प्रवृत्ति थी । कुमारावस्था में है! सुन्दरबाई मे अच्छी शिक्षा प्राप्त करली और खून विद्याध्ययन कर लिया। इतनो अल्प अवस्था में इतनी योग्यता शायद ही कोई लड़की प्राप्त कर सकती हो ।
जब सुन्दरबाई की अवस्था प्रायः ११ वर्ष की हुई, तब आपकी माता, आपका विवाह करने की इच्छा से, आपको लेकर जोधपुर रियासत के 'पीपाड़' नामक स्थान में श्रई । यहीं सुन्दरबाई को साधुसाध्वियों के समागम का संयोग प्राप्त हुआ । उसी समय वैराग्यपूर्ण देशनाएँ सुन-सुनकर सुन्दरबाई का चित्त संसार से विरक्त होने लगा । परन्तु कर्मान्तराय से आपको गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना था। इसलिये संसार त्याग करने का अवसर नहीं मिला । १६३८ की माघ शुक्ला तृतीया के दिन नागोर निवासी श्रीमान् प्रतापचन्द्रजी भण्डारी के साथ आपका शुभविवाद हुआ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
वृहन खरतर गच्छ सम्प्रदाय के गणाधीश्वर श्री सुखसागरजी महाराज के समुदाय की जगत् विख्यात, शान्त मूर्ति, गम्भीरता आदि गुणों से अलंकृत श्रीमती पुण्य श्रीजी महाराज संम्वत् १६४५ में नागोर पधारीं । श्री सुन्दर बाईजी उनका उपदेश श्रवण करने के लिये उनके पास नित्य आने लगीं। एक दिन श्रीमती पुण्य श्री जी ने अपनी देशना में संसार को मारता बताई |
नित्य वैराग्यमयी बातें सुनते सुन्दर बाई का हृदय वैराग्य-रस से परिपूर्ण हो गया । अब के श्रीमती पुण्य श्री जी की मधुर देशना ने खोने में सुहागा को सा काम किया । आपका वैराग्यभाव बहुत ही पुष्टं हो गया। आपने उसी समय गुरुणीजी महाराज से दीक्षा ग्रहण करने का अपना विच र प्रकट किया ।
जब सुन्दरबाई ने बहुत आग्रह करना आरम्भ किया, और इनका हार्दिक वैराग्य भाव देखकर श्री गुरुणीजी ने कहा, 'अच्छा, यदि तुम्हारी इच्छा दीक्षा लेने की ऐसी प्रबल है, तो पहले अपने घरवालों से इसके लिये श्राज्ञा मांग लो ।”
पहले तो लोगों ने हमारी चरित्र नायिका के दीक्षा ग्रहण करने में बडी-बडी अड़चनें डाली, प्रतापमलजी साहब ने भी ऐसी सर्वतः सुयोग्य । परनी को आज्ञा देने में बहुत आनाकानी की, रोकने का जितना प्रयत्न करना था सब कर लिया । पर सुन्दर बाई जैसी तीव्र वैराग्य भावमा वाली कब रुकने वाली थीं, सबको अनेक प्रकार से समझा कर आखीर सबसे माझा प्राप्त करके उन्होंने सं० १६४६ को मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी बुधवार के दिन प्रातः काल ८ बजे गृहस्थ धर्म को
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