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जैन श्रमण-सौरभ
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अपने जीवन की मंजिलें पार करते हुए युवावस्था को आचार्य श्री विजय मुद्रसूरिजी जन साधारण में प्राप्त हुए । परन्तु आपका यौवन वैराग्य रस-पूर्ण तथा अत्यंत लोकप्रिय हैं। साधु, मुनिराज तथा दूसरे भक्ति रस पूर्ण था । फल स्वरूप वि० १६६७ फाल्गुण आगय गण भी आरसे परम स्नेह रखते हैं । आचार्य कृष्णा ६ को आप भी अपने बड़े भाई पुखराज के पद श्री विजय ललितसूरिजी श्री मद् विजय वल्लभ चिन्हों पर चलते हुए गुरुदेव श्री विजय बल्लभ सूरीश्वरजी के मुख्य पट्टधर थे । मारवाड तथा दूसरे सूरीश्वरजी के करकमलों द्वारा सूरत में दीक्षित होकर प्रान्तों में उनकी सेवाएं तथा महान कार्य स्वर्णाक्षरों क्रान्तिकारी उपाध्याय श्री सोहन विजयजी के शिष्य में लिखे रहेंगे। जिस समय हमारे चरित्र नायक कहलाए । अब पुखराजजी तथा सुखराजजी क्रमशः अपने गुरुदेव श्री की भक्ति तथा समाज सेवी सागर विजयजी तथा समुद्र विजय जी हो गए। कार्यों में लगे हुए थे तो तो स. आचार्य श्री विजय
आपकी बहन ने भी दीक्षा लेली तथा उनका नाम ललित मूरि जीने अपने एक निजि पत्र में श्री विजय हस्तिश्री जी हुआ।
समुद्र मूरिजी ( उस समय पन्यास जी) के प्रति जो
वात्सल्य, सद्भावना, स्नेह तथा कृपा प्रकट की थी जीवन के नवीन अध्याय में प्रवेश करके आचार्य वह यहाँ उधत की जाती है:श्री जी गुरु भक्ति तथा समाज सेवा में जुट गए।
__ "स्नेही पन्यासजी। तुम भी मनुष्य हो, मैं भी अनेक पुस्तकों का आपने संपादन किया तथा अंजन
हर मनुष्य हूँ। तुम से वृद्ध हूँ । मगर भावना होती है कि शलाला व प्रतिष्ठा आदि कार्य सम्पन्न कराए । गुरुदेव श्री विजय वल्लभसूरिजी महा० के पास रह कर लग
यदि मैं राज गुरु होऊँ तो तुम्हारे शरीर प्रमाण सोने भग ४० वर्ष तक उनके निजि सचिव का कार्य करते की तुम्हारी मूर्ति बनवाकर नित्य तुमको नमन कर
तुमको वन्दन करू । तुम्हारी भक्ति, तुम्हारी विशुद्ध रहे। आपकी लगन, योग्यता एवं गुरु भक्ति व
लेश्या, तुम्हारा सरल स्वभाव यह सब तुम्हारा तुम्हारे अनुभव पर ही गुरुदेव ने आपको विशेप करके
में हो है । गुरुदेव तुम्हाग कल्याण करें तथा भव २ पंजाब के लिए नियुक्त किया। संवत् १६६३ में कार्तिक
तुमको गुरु भक्ति फलवती हो ।” शुदि १३ को अहमदाबाद में आपको गणिपद तथा इसी वर्ष मगर वदि ५ को पन्यास पद से भूिषित वर्तमान में श्री गुरुदेव श्री विजय समुद्रसूरिजी किया गया। बडौदा में वि० सं० २००८ फाल्गुण बम्बई से चलकर सौराष्ट्र गुजरात एवं मरूघर सुदि १० को उपाध्याय पद से और थाणा (बम्बई) में प्रान्त में अपनी जन्म भूमि पाली से आगरा पधारे। माघ सुदि ५ सं० २००६ को आचार्य पद से विभूषित आप ही के उपदेश तथा प्रेरणा से फालना जैन किये गये। उसी समय थाणा में गुरु देव श्री जी ने इण्टर कालेज में डिग्री क्लासेज शुरू हुई । भगवान आपको पंजाब का भार संभलाया और पंजाब में जाने आपको चिरायु करें तथा हजारों बहार थापका को विशेष तौर पर कहा।
अभिनन्दन करती रहें।
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