Book Title: Jain Shraman Sangh ka Itihas
Author(s): Manmal Jain
Publisher: Jain Sahitya Mandir

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Page 177
________________ जैन श्रमण तपागच्छीय त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय श्री सौधर्म बहत्पागच्छीय पार परम्परा में ६७ वें पाट पर पूज्य जंनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज बड़े प्रभाविक आचार्य हुए हैं। त्रिस्तुतिक संप्रदाय के आद्य प्रेणता आप ही हैं। आपने अद्वितीय और सर्व मान्य अभिधान राजेन्द्र कोष की रचना की है । थाप भरतपुर निवासी पारख गोत्रीय ओसवाल थे । आपके पाटवर जैनाचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म० हुए। आप भी बड़े विद्वान् और प्रभाविक थे । आप किशनगढ़ निवासी ककु चोपड़ा गोत्रीय ओसवाल थे । आपके कई एक शिष्य थे । आपके समय में ही पट्टधर बनने के विषय में प्रधान शिष्यों में आपसी वैमनस्य उमड़ चुका था । आपके बाद में दो आचार्य हुए श्री विजय भूपेन्द्रसूरिजी तथा श्री विजय तीर्थेन्द्रसूरिजी । पं० श्री भूपेन्द्रसूरिजी के पट्टधर आ. श्री विजय यतीन्द्रसरिजो विद्यमान हैं। स्व० आ० श्री विजय तीर्थेन्द्रसूरीश्वरजी आप सागर (म०प्र०) निवासी चतुर्वेदी ब्राह्मण थे । सं० १६४८ कार्तिक शुक्ला १० को आपका जन्म हुआ था। आपके पिताजी का नाम नाथूरामजी तथा माताजी का नाम लक्ष्माबाई था । जन्म नाम नारायण था । आपने प्रथम यति दीक्षा वि० सं० १६६१ में कमल गच्छाधिपति श्री पूज्य श्री सिद्धसूरिजी महाराज के पास बीकानेर में ग्रहण की थो और फलौदी निवासी यति पदमसुन्दरजी के शिष्य घोषित हुए । यति पद्मसुन्दरजो बड़े पण्डित और प्रख्यात पति थे । जोधपुर के महाराजा सर प्रतापसिंहजी ने चार गाँव सौरभ १७७ मेड़ता परगने में इनायत किये थे । आपके देहावसान हो जाने पर यति नारायण सुन्दर ने विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी के पास सं० १६६४ खाचरोद ( मालवा ) जैन तीर्थ में हुई थी। आपका शुभ नाम तीर्थ विजय साधु दीक्षा ग्रहण की थी। बडी दीक्षा भोलडीयाजी में आचार्य श्री विजय तीर्थेन्द्रसूरीश्वरजी जी रखा गया था। आप आचाय श्री के बड़े प्रिय शिष्य थे । आचार्य श्री ने आपको ही पट्टधर आचार्य बनाने की घोषणा की थी । वि० सं० १९७२ में विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने आपको पन्यास पद प्रदान किया था । और वि० सं० १६८१ में महाराजाधिराज श्री झाबुआ नरेश श्री उदयसिंह साहब ने महामहोपाध्याय - पद प्रदान किया था और सं० १६६२ में भीनमाल निवासी श्री सिरेमलजी नाहर ने दर्शनार्थ आबूजी का संघ निकाला था। वर्तमान में दोनों की परम्परा है । उस वक्त सकल श्री संघ तथा संघवीजी ने मिलकर आपको आबूजी पर आचार्य पद प्रदान किया था ।

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