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जैन श्रमण संघ का इतिहास ul> DIWARD>IMISATIRD IND-COIL HINDI: INID THID=ollu. AIDS IDFINID olitiku - Cl. IDFolk HIN><l
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साधना के बल से उन्होंने अपने ममस्त दोषों विकारों को रक्षा के लिए प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में ब्राह्मणों
और दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर ली। साढ़े ने अपनी सत्ता अनिवार्य कर दी थी । धार्मिक विधिपारह वर्ष तक दीर्घ तपस्या का अनुष्ठान करने के विधान भी जटिल बना दिये गये थे ताकि उन्हें पश्चात् उन्हें अपने लक्ष्य में सफलता मिली । वे सम्पन्न कराने वाले पुरोहित के बिना काम ही न वीतराग बनगये । आत्मा की अनन्त ज्ञान ज्योति चले । इस तरह ब्राह्मण वर्ग ने अपना एकाधिपत्य जगमगा उठी । नैशाख शुक्ला दशमी के दिन उन्हें जमा रखा था। उन्होंने अपनी सत्ता को बनाये रखने केवलज्ञान और केवल दर्शन का विमल प्रकाश के लिए जातिवाद का भूत खड़ा कर रखा था। प्राप्त हुआ। तब गे लोगों को हित का उपदेश देने जिसके अनुसार वे अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मानकर वाले तीर्थंकर बने। यह है महावीर का कठोर समाज के एक वर्ग को सर्वथा हीन मानते थे। अपने साधना और उसका दिव्य-भव्य परिणाम । ही खड़े किये जातिवाद के आधार पर उन्होंने शुद्रों
भगवान महावीर के उपदेश और उनकी क्रान्ति को धार्मिक एवं सामाजिक लाभों से वञ्चित कर को समझने के पहले उस काल की परिस्थिति का ज्ञान दिया था। स्त्रियों की स्वतन्त्रता का अपहरण हो करमा आवश्यक है। महापुरुष अपने समय की चुका था। उन्हें धार्मिक अनुष्ठान का स्वादन्न्य परिस्थिति के अनुसार अपना सुधार प्रारम्भ करते प्राप्त नहीं था । सामाजिक क्षेत्र में रातदिन की दासता है। अपने समय के वातावरण में आये हुए विकारों के सिवा और कोई उनका काम ही नहीं था। "स्त्रीमें सुधार करना ही उनका प्रधान काम हुआ करता शूद्रो नाधीयतम्" का खूबप्रचार था। मनुष्यों का है। अतः हमें यहां यह देखना है कि भगवान् महान व्यक्तित्व नष्ट हो चुका था और वे अपने महावीर के सामने कैसी परिस्थिति थी। उस समय आपको इन ब्राह्मण पुजारियां के हाथ का खिलौना भारत के धार्मिक क्षेत्र में बौदिक कर्मकाण्डों का बनाये हुए थे । प्रत्येक नदी नाला, प्रत्येक ईट-पत्थर प्राबल्य था। सब तरफ हिंसक यज्ञों का दौरदौरा था। प्रत्येक झाड़-झंखाड देवता माना जाता था । भोला लाखों मूक पशुओं की लाशें यज्ञ की बलिलोदी पर समाज अपने आपका दीन मान कर इनके आगे तडफती रहती थीं। पशु ही नहीं बालक, वृद्ध और अपना मस्तक रगड़ता फिरता था। इस तरह प्राध्यालक्षण सम्पन्न युवक तक देव पूजा के बहम से मौत मि और संस्कृतिक पतन के काल में भगवान महाके घाट उतारे जाते थे। यज्ञों में जितनी अधिक वीर को अपना सुधार कार्य प्रारम्भ करना पड़ा। हिंसा की जाती थी उतना ही अधिक उसका महत्व अपनी अपूर्णताओं को पूर्ण करने के पश्चात् समझा जाता था। ब्राह्मणों ने धार्मिक अनुष्ठानों विमल केवला-ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भगवान् को अपने हाथ में रख लिया था। देवों और मनुष्यों महावीर ने लोक-कल्याण के लिए उपदेश देना प्रारंभ का सम्बन्ध पुरोहित की मध्यस्थता के बिना हो सकता किया। उन्होंने अपने उपदेशों के द्वारा मानवता को या। सहायक के तौर पर नहीं बल्कि स्थिर स्वार्थों
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