Book Title: Jain Shraman Sangh ka Itihas
Author(s): Manmal Jain
Publisher: Jain Sahitya Mandir

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Page 122
________________ १२२ जैन श्रमण संघ का इतिहास ANDAMITTIMADIDIHIUTIDOID mouTD-ATHI IND-II DINDORRUIDAININD DID OILINISTITUTID CHILD AIAHIDDIT जिनदत्तसूरि के शिष्य और पट्टधर जिनचन्द थी। कन्नाणा की महावीर मूर्ति को इन्होंने मुहम्मद सूरिजी मणीधारी दादाजी के नाम से प्रसिद्ध है। तुगलक से पुनः प्राप्त किया और सम्राट उन्हें बहुत कहा जाता है कि इनके मस्तिक में मणि थी, इनका ही आदर देता था। स्वर्गवास छोटी उम्र में ही दिल्ली में हो गया था। जैन विद्वानों में सबसे अधिक स्तोत्रों के रचयिता और महरोली में आज भी आपका स्मारक विद्यमान आप ही थे। कहा जाता है कि आपने ७०० स्तोत्र है। इनके पट्टधर जिनपत्रिसूरि बहुत बड़े विद्वान बनाये । जिनमें अब तो करीब १०० ही मिलते हैं। और दिग्गजवादी थे। अनेक शास्त्रार्थ इन्होंने विविध तीर्थकल्प, विधिप्रभा, श्रेणोकचरित्र द्वाश्रयराजसभाओं आदि में करके विजय प्राप्त की थी। काव्य आदि आपकी प्रसिद्ध रचनायें हैं। पद्मावती पांचसौ सातसौ वर्षों से जो चैत्यवास ने श्वेतांबर देवी आपके प्रत्यक्ष थीं। इनकी परम्परा १७-१८ सम्प्रदाय में अपना प्रभाव विस्तार किया था, वह वी शताब्दी से लुप्त प्रायः हो गई। इनके गुरु जिन. जिनेश्वरसूरि से लेकर जिनपतिसूरि जी तक के संघसूरि से "लघुखरतर" शाखा प्रसिद्ध हुई। प्राचार्यों के जबरदस्त प्रभाव से क्षीण प्रायः हो गया। इसकी जीवनी के सम्बध में पं० लाल चन्द गान्धी अतः सुविहित मागे की परम्परा को पुनः प्रतिष्ठित और हमारे लिखित जीवन-चरित्र देखने चाहिये । और चाल रखने में खरतरगच्छ की श्वेताम्बर जैन खरतरगच्छ संबधी ऐतिहासिक साधन, बहुत संघ को महान देन है। प्रचुर, और विशिष्टि है । 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' जिनपतिसूरिजी और उनके पट्टधर जिनेश्वरसूरि नामक खरतरगच्छ की पट्टावली, भारतीय ग्रंथों में जी का शिष्य समुदाय विद्रता में भी अग्रणी था। अपना विशिष्ट स्थान रखती है । ऐसा प्रमाणिक और उनके रचित प्रथों की संख्या और विशिष्टता व्यवस्थित प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ, भारतीय साहित्य उल्लेखनीय है । कुछ अन्य पट्टधरों के बाद १४ वीं में शायद ही मिलेगा। शताब्दी के उत्तराद्ध में जिनेकुशलसूरिजी भी बड़े वर्धमान सूरि से लेकर क्रुशल सुरिजी के पट्टप्रभावशाली हुए जो छोटे दादाजी के नाम से सर्वत्र घर जिनपद्मसूरिजी तक का ( सम्बत् १३६३ का ) प्रसिद्ध हे व भक्तजनों की मनोकामना पकाने में इतिहास में इस सम्बतानुक्रम से दिया गया है। इसका पहला अंश जिनपतिसूरिजी के शिष्य जिनकल्पतरू सद्दश्य है । इनके भी मन्दिर, चरणपादुकाएं पालोपाध्याय ने संवत् १३०५ में पूरा किया और और स्तुति-स्तोत्र प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं। उसके बाद भी यह गुर्वावली क्रमशः लिखी जाती चैत्यवन्दन कुलवृत्ति इनकी महत्वपूर्ण रचना है। . रही है। इसकी जो एकमात्र प्रति बीकानेर के क्षमा ___ इन्हीं के समय जिनप्रभुसरि नामके एक और कल कल्याणजी के भंडार से मुझे मिली थी, उसीके आधार से मुनि जिनविजयजी द्वारा संपादित होकर आचार्य बहुत बड़े विद्वान और प्रभावक हुए जिन्होंने । जहान सिंघी ग्रंथमाला द्वारा यह गुर्वावली प्रकाशित हो सम्वत् १३८५ में मुहम्मद तुगलक को जैन धर्म का चकी है। संभव है इसके बाद भी पट्टावलियां लिखो सन्देश दिया। उसकी सभा में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा जाती रही हों। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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