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वतमान जैन मुनि परम्परा
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है, उस स्वरूप के निर्माण में खरतरगच्छ के आचार्य, यति और आवक संघ का बहुत बड़ा हिस्सा है । एक तपागच्छ को छोड़कर दूसरा और कोई गच्छ इसके गौरव की बराबरी नहीं कर सकता। कई बातों में तपागच्छ से भी इस गच्छ का प्रभाव विशेष गौरवा न्वित है। भारत के प्राचीन गौरव को अक्षुण्य रखने वाली राजपूताने की वीरभूमिका पिछले एक हजार वर्ष का इतिहास ओसवालजाति के शौर्य, औदार्य, बुद्धिचातुर्यं और वाणिज्य व्यवसाय कौशल आदि महत् गुणों से दोप्त है, और उन गुर्गों का जो विकास इस जाति में हुया है, वह मुख्यतया खरतर गच्छ के प्रभावान्वित मूख पुरुषों के सदुपदेश तथा शुभाशीर्वाद का फल है । इसलिए खरतरगच्छ का उज्वल इतिहास केवल जेनसंघ के इतिहास का ही एक महत्वपूर्ण अध्याय नहीं है, बल्कि वह समय राजपूताने के इतिहास का एक विशिष्ट प्रकरण है ।
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खरतरगच्छ यह नामकरण इस गच्छ की परम्परा के अनुसार, संवत् १०७० के लगभग पाटण के महारजा दुर्लभराजकी राजसभा में चैत्यवासियों के साथ आचार्य बर्धमानसूर और जिनेश्वरसूरि के साथ होने वाले शास्त्रार्थ से सम्बंधित है । चैत्यवासी इस शास्त्रार्थ में पराजित हुए और जिनेश्वर सूरिजी आदि सुविहित मुनियों के कठोर आचारपालन का सूचक खरतर संबोधन नृपति दुर्लभराज द्वारा किया गया | अतः वर्तमान श्वेताम्बर गच्छों में यह सबसे
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प्राचीन भी है । अन्चलगच्छ और तपागच्छ इसके बाद ही हुए । आचार्य जिनेश्वरसूरि और उनके गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरि बड़े विद्वान भी थे । उनके बनाये हुए कई ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें से 'प्रभा लक्ष्य ' नामक जैन न्यायप्रन्थ और पन्चप्रन्थी नामक व्याकरण ग्रन्थ अपने विषय और ढंग के पहले ग्रन्थ हैं । वैसे जिनेश्वरसरिजी रचित 'अष्टकटीका' आदि भी महत्वपूर्ण प्रन्थ हैं जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य जिनबन्दसूरि और श्रभयदेवसूरि हुए। इनमें से जिनन्द सूर रचित 'संम्वेगरंगशाला' महत्वपूर्ण हैं और श्रभयदेव सूरिजी तो नवाँगवृतिकार के रूप में प्रसिद्ध एवं सर्व मान्य ही हैं। अभयदेवसूरिजी के पट्टधर जिनवल्लभसूरिजी अपने समय के विशिष्ट विद्वानों में से है और अभयदेवसूरिजी के शिष्य वर्धमानरि के भी मनोरमा, आदिनाथ चरित्रादि उल्लेखनीय है । जिनवल्लभ सूरिजी के शिष्य जिनशेखर सूरि से रुदपल्लीय शाखा और वद्ध मानसूरिजी से मधुकरा शाखा प्रसिद्ध हुई ।
जिनवल्लभ सूरिजी के पट्टधर जिनदत्त सूरिजी बड़े ही प्रभावशाली हुए । जिन्होंने करीब सवा लाख जैन बनाये और बड़े दादाजी के नाम से हैं । सैंकडों स्थानों में उनके गुरुमन्दिर और चरण पादुकाएं स्थापित है। सैंकडों स्तोत्र, स्तवन इनके सम्बन्ध में भक्तजनों ने बनाये हैं। इनका जन्म सं० ११५२, दीक्षा ११४१, आचार्य पदोत्सव ११६६ और स्वगवास सम्वत् १२१९ में अजमेर में हुआ । आषाढ शुक्ला १९ को इनकी जयन्ती भी अनेक स्थानों पर बनाई जाती है ।
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