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वर्तमान- मुनि परम्परा
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हों । पर उसकी कोई प्रति अभी प्राप्त नहीं हो सकी । इसी गुर्वावली के साथ वृद्धाचार्य प्रबन्धावली नामक प्राकृतभाषा की एक और रचना प्रकाशित हुई है । जिसमें 'वर्द्धमानसूर से जिनप्रभुसूरि' तक के प्रधान आचार्यों के चरित्र मिलते हैं । अन्य पट्टावलियां गुरुरास, गीत आदि भी प्रचूर ऐतिहासिक साधन प्राप्त हैं | हमारा ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह इस सम्बन्ध में दृष्टव्य हैं ।
जिन कुशलसूरिजी के सौ वर्ष बाद जिनभदसूरिजी हुए जिनके स्थापित ज्ञान भंडार, जैसलमेर आदि में मिलते हैं । प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा और उनकी नई प्रतिलिपियाँ करवाकर कई स्थानों में ज्ञान भंडार स्थापित करने का श्रापने उल्लेखनीय कार्य किया है ।
इनके खौ बर्ष बाद पू. जिमचन्दसूरि जी बडे प्रभावशाली आचार्य हुए जिन्होंने सम्राट अकबर को जैनधर्म का प्रतिबोध दिया और शाही फरमान प्राप्त किये । सम्राट जहांगीर ने जैन साधुओं के निष्कासन का जो आदेश जारी कर दिया था उसे भी आपने ही रद्द करवाया । आपके स्वयं के १५ शिष्य थे । उस समय के खरतरगच्छ के साधु साध्वियों की संख्या सहस्त्राधिक होगी। जिनमें से बहुत से उच्चकोटि के विद्वान भी हुए । अष्टलक्षी जैसे अपूर्व प्रश्य के प्रणेता महोपाध्याय समयसुन्दर आपके ही प्रशिष्य थे। विशेष जानने के लिये हमारी युगप्रधान जिनचन्दसूरि देखनी चाहिये। ये चौथे दादा साहब के नाम से प्रसिद्ध हैं । इनमें हमने चारों दादा साहब के चरित्र प्रकाशित कर दिये हैं। इनमें जिनचन्द सूरिजी को सम्राट अकबर ने 'युगप्रधान पद दिया था । सं० १६१३ में
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बीकानेर में इन्होंने क्रिया उध्दार किया था। यु. प्र. जिनचन्द सूरिजी के सौ वर्ष बाद जिनभक्तसूरिजी हुए उनके शिष्य प्रतिसागर के शिष्य अमृतधर्म के शिष्य उपाध्याय क्षमा कल्याणजी हुए। जिन्होंने साध्वाचार के नियमग्रहणकर शिथिलाचार को हटाने में एक नई क्रांति की । खरतरगच्छ में आज सबसे अधिक साधुसाध्वी का समुदाय इन्हीं की परम्परा का है । यह अपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। बोकानेर में सम्बत् १८५४ में इनका स्वर्गवास हुआ। आपके शिष्य धर्मानन्दजी के शिष्य राजसागरजी से सम्वत् १६०६ में सुखसागरजी ने दीक्षा ग्रहण की, इन्हीं के नाम से सुखसागर जी का संघाडा प्रसिद्ध है जिसमें श्राचार्य हरिसागरसूरिजी का स्वर्गवास थोड़े वर्षो पहले हुआ है और अभी आनन्दसागर सूरिजी विद्यामान हैं । उनके श्राज्ञानुवतीं उपाध्याय कवीन्दसागरजी और प्रसिद्ध बाल मुनि कान्तिसागरजी आदि १०-१२ साधु और लगभग २०० साध्वियां विद्यामान है ।
अभी खरतरगच्छ में तीन साधु समुदाय हैं । जिनमें से सुखसागरजी के समुदायका ऊपर उल्लेख किया गया है। दूसरा समुदाय मोहनलालजी महाराज का है जिनका नाम गुजरात में बहुत ही प्रसिद्ध है । आपले यति थे पर किया उद्धार करके साधु बने और तपागच्छ और बरतरगच्छ दोनों गच्छों में समान रूप से मान्य हुए। आपकी ही अद्भुत विशेषता थी कि आपके शिष्यों में दोनों गच्छ के साधु है और उनमें से कई साघु बहुत ही क्रियापात्र सरल प्रकृति के और विद्वान हैं। खरतरगच्छ में इनके पट्टबर जिनयशसूरजी हुए। फिर जिनऋद्धिसूरिजी और रत्नसूरिजी हुए इनमें जिनऋद्धिसूरिजी गुजरात
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