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जैन श्रमण संघ संगठन का वर्तमान स्वरूप
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लगे। देवव्य का अपने लिए उपभोग करने लगे। के बाद हुई है । उद्योतनसरि ने अपने शिष्य सर्वदेव निमित्त, मुहूर्त आदि बताने लगे यति और श्री पूज्य को वटवृक्ष के नीचे सरि पद दिया इससे यह गच्छ इसी परम्परा के हैं । हरिभदसूरि ने संबोध प्रमाण में बड़गच्छ कहलाया । इसके बाद इस गाछ में भगवान् इसका वर्णन करते हुए कड़ी खबर ली है । इसके महावीर स्वामी के ४४ वें पट्टधर आचार्य श्रीजगच्चन्द्र बाद खरतरगच्छ के जिनेश्वरसूरि, जिनदत्तसूरि भादि सूरि हुए । इन्होंने १२८५ (वि० सं०) में उप्र तपश्चर्या ने इसका खूब विरोध किया। इसके बाद मुख्य २ की इससे मेवाड़ के महाराणा ने इन्हें 'तपा', की गच्छ इस प्रकार हुए:
उपाधि प्रदान की। इस पर से यह गच्छ तपा गच्छ १ खरतरगच्छ
कहलाया । इस गच्छ के मुनियों की संख्या बहुत
अधिक है। जगच्चन्द्रसूरि के शिष्य विजयचन्द्रसरि ने (१) खरतरगच्छः -इस गच्छ को पट्टावली में कहा
वृद्ध पोशालिक तपागच्छ की स्थापना की। प्रसिद्ध कर्म गया है कि चन्द्रकुल के वर्धमानसरि के शिष्य श्री प्रन्थकार देवेन्द्रसूरि जगच्चन्द्रसरि, के पट्टधर हुए। जिनेश्वरसरि के द्वारा इस गच्छ की स्थापना हुई।
३ उपकेशगच्छ पाटन की गादी पर जब दुर्लभराज आरूढ़ था तब
___इस गच्छ की उत्पत्ति का सम्बन्ध भगवान् ऐसा प्रसंग उपस्थित हुआ कि ये जिनेश्वरसरि उक्त ।
पार्श्वनाथ के साथ माना जाता है। प्रसिद्ध भाचार्य राजा की राजसभा में गये और उसके सरस्वती
रत्नप्रभसरि जो ओसवंश के आदि संस्थापक है इसी भण्डार से दशवैकालिक सत्र मंगवाकर राजा को बता दिया कि चेत्यवासियों का प्राचार शुद्ध आचार नहीं
गच्छ के थे। स्वर्गीय सुप्रसिद्ध इतिहास वेत्ता मुनि है। उक्तस रिजी के आचार विचार से राजा दुर्लभराज
__ ज्ञान सुन्दरजी (आचार्य देव गुप्त सुरिजी) इसी गच्छ
के थे। बहुत प्रभावित हुआ उसने उन्हें 'खरतर' (अधिक
४ पौर्णमिक गच्छ .. तेज उस्कृष्ठ आचार वाले) की उपाधि दी । तबसे चैत्यवासियों का जोर कम होगया। इससे पहले तक
संवत् ११५१ में चन्द्रप्रभसूरि ने क्रिया काण्ड
सम्बन्धी भेद के कारण इस गच्छ की स्थापना की। बनराज चावड़ा के समय से पाटण में चैत्यवासियों
कहा जाता है कि इन्होंने महानिशीय सूत्र को शास्त्र का ही जोर था इन जिनेश्वरसार की खरतर उपाधि ग्रन्थ मानने का प्रतिषेध किया। सुभतसिंह ने इस से खरतरगच्छ की स्थापना सं० १०८० में हुई। गच्छ क। नव जीवन दिया तब से यह सार्घ ( माधु) जिनवल्लभसरि और जिनदत्तसरि (दादा) इस गच्छ पौर्णमिक कहलाया । के परम प्रभावक पुरुर हुए।
५ अंचलगच्छ या विधिपक्ष २ तपागच्छ
आर्य रक्षित मरि ने स. ११६६ में इस गच्छ
की स्थापना की। मुख वस्त्रिका के स्थान पर अंचल यह गच्छ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सबसे अधिक (वस्त्र का किनारा) का उपयोग किया जाने से पह महत्व वाला है। तपागच्छ को उत्पत्ति उद्योतनसरि बच्छ अंचलगन्छ कहा जाता है।
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