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जैन श्रमण संघ संगठन का वर्तमान स्वरूप
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u plIN INIORITI Hi><olungolp! TILISTO-li> DIKHARU ANCITY उन्होंने अपनी संप्रदाय का एक दृढ़ विधान बनाया। इस प्रकार भगवान् महावीर की परम्परा का उस विधान में संप्रदाय को संगठित रखने वाले तत्व प्रवाह स्याद्वाद के सिद्धान्त के रहते हुए भी अखंडित दूरदर्शिता के साय सन्निहित किये। आपने अपने न रह सका और वह उक्त प्रकार से नाना सम्प्रदायों समय में ४७ साधु और ५६ साध्वियों को अपने पन्थ गच्छों और पन्थों में विभक्त हो गया। काश् यह में दीक्षित किया था । आपका स्वर्गवास स. १८६० विभिन्न सरिताये पुनः अखण्ड जनत्व महासागर में भाद्रपद शुक्ला १३ को ७७ वर्ष की अवस्था में एकाकार हो ! सिरियारी ग्राम में हुआ। आपके बाद स्वामी भारमल जी आपके पट्टधर हुए।
भट्टारक तथा यति परम्परा १ आचार्य भिक्षु, २ भारमल जी स्वामी, ३ रामचंद्र जी स्वामी, ४ जीतमलनी स्वामी, ५ मघराजजी स्वामी
जैन श्रमण परम्परा पर विचार करते समय यति ६ माणकचन्दजी स्वामी, ७ डालचन्दजी स्वामी,
परम्परा पर भी विचार करना आवश्यक हो जाता ८ कालुरामजी स्वामी ये आठ प्राचार्य इस संप्रदाय
__ है। सच तो यह है कि जैन मुनियों का वतमान
स्वरूप यति परम्परा का हो एक परिष्कृत एवं उत्कृष्ट के हो चुके हैं । वर्तमान में आचाय श्री तुलसी गणी नवें पट्टधर हैं। प्राचार्य तुलसी वि० सं० १६१३ में
स्वरूप है, जिसमें एकान्त रूप से आत्म कल्याण हेतु
अपने को सांसारिक प्रपंचों से किंचित मात्र भी संबंध पदारूढ हुए । आप अच्छे व्याख्याता, विद्वान् कवि और कुशल नायक हैं। श्रापके शासन काल में इस
रखने वाली प्रवृत्तियों से बचकर विशुद्ध निवृत्ति मार्ग
की ओर आरूढ़ बनने में ही सच्चो श्रमण साधना संप्रदाय की बहुमुखी उन्नति हुई है।
न मानी गई । यह परिष्कृत स्वरूप प्रारंभ में चैत्यवासियों ___ इस गंप्रदाय की एक खास मौलिक विशेषता है,
' से खरतर गच्छ, बाद में तपा गच्छ और स्थानकवह है इसका दृढ संगठन । सैकडों साधु और साध्वियाँ सस
वासी मान्यता के रूप में शनःशनै परिवर्तित एवं एक ही प्राचार्य की आज्ञा में चलती है । इ संप्रदाय के
परिष्कृत होता गया। साधुसाध्वियों में अलग २ शिष्य शिष्यें करने की प
विक्रम की १० वीं सदी के पूर्वाद्ध में चैत्यवासियों प्रवृत्ति नहीं है । सब शिष्यायें प्राचार्य के ही नेश्राय
का प्राबल्य रहा । ये मन्दिर पूजन के नाम पर मन्दिरों में की जाती हैं। इससे संगठन को किसी तरह का
में घर की तरह रहने लगे और धीरे धीरे उन खतरा नहीं रहता। संगठन के लिए इस विधान का
मन्दिरों का रूप मठों जैसा होने लगा। पोप लिलाएँ बड़ा भारी महत्व है। इ3 संप्रदाय में आचार्य का
बढने लगी। इस प्रकार इसमें अत्यधिक विकृत्तियां एक छत्र शाशन चलता है।
श्राजाने से विक्रम को ११ वीं सदी में प्राचार्य विक्रम स. २००७ तक सब दीक्षायें १८५५ हुई।
जिनचन्द्र सूरि के शिष्य वर्धमानसूरि ने चैत्यालयों उनमें साधु ६३४ और साध्वियां १२२१ । वर्तमान में ६३७ साधु-साध्वियां आचार्य श्री तुलसी के नेतृत्व में में निवास करने का भयंकर आशातना माना और विद्यमान है।
जिन मन्दिर विषयक ८४ अाशातनाओं का विशेष
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