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जैन श्रमण संघ संघठन का वर्तमान स्वरूप
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इस विचार ने उनके हृदय में क्रान्ति मचा दी। उन्होंने शिवजी ऋषिजी के संघराजजी और धर्मसिंहजी दो अन्य सूत्रों का वाचन, मनन और चिन्तन किया इसके शिष्य हुए संघराज अषि की परम्परा में अभी नृपचंद फलस्वरूप उन्होंने निर्णय किया कि 'शास्त्रों में मूर्ति- जी हैं । इनकी गादी बालापुर में है धर्मसिंहजी म० पूजा करने का विधान नहीं है । साधु साध्वी जो की परम्परा दरियपुरी सम्प्रदाय कही जाती है। कार्य कर रहे हैं। वह सत्य साध्वाचार से विपरीत है जीवाजी ऋषि के दूसरे शिष्य वरसिंहजी की अत: जैन संघ में पाए हुए विकार को दूर करने की परम्परा में पाटानुपाट केशवजी हुए। इसके बाद अावश्यकता है । लौकाशाह ने अपने इन विचारों को यह केशवजी का पक्ष कहलाने लगा इस पक्ष के यतियों तत्कालीन जनता के सामने रक्खा । परम्परा से चली की गादी बडौदा में है। इस पक्ष में यदि दीक्षा छोड़आती हुई मूर्तिपूजा के विरोधी विचारों को सुन कर कर तीन महापुरुष निकले जिन्होंने अपने २ सम्प्रदाय हलचल मच गई परन्तु लौंकाशाह ने अनेक युक्तियों चलाये । वे प्रसिद्ध पुरुष , लवजी ऋषि, धर्मदासजो
और प्रमाणों से अपने मन्तव्य की पुष्ठि की । धीरे २ और हरजी ऋषि । जनता उस ओर आकृष्ट होने लगी। कहते है शत्रुजय जीवाजी ऋषि के तीसरे शिष्य श्री जगाजी के की यात्रा करके लौटते हुए एक विशाल संघको उन्होंने शिष्य जीवराजजी हुए। इस परम्परा से अमरसिंहजी अपने उपदेश से प्रभावित कर लिया। दृढ़ संकल्प म० शीतलदासजी म० नाथूरामजी म. स्वामीदासजी सत्य निष्ठा और उपदेश की सचोटता के कारण म०और नानकरामजी म० के सम्प्रदाय निकले। लौकाशाह सफन धर्म क्रान्तिकार हुए। सर्व प्रथम लवजी ऋषि से कानजी ऋषिजी का सम्प्रदाय, भाणजी आदि ४५ पुरुषों ने लौकशाह के द्वारा खम्भात सम्प्रदाय, पंजाब सम्प्रदाय रामरतनजी म. प्रदर्शित मार्ग पर प्रवृत्त करने के लिये दीक्षा धारण का सम्प्रदाय निकले। की । सं० १५३१ में एक साथ ४५ पुरुष लोकाशाह धर्मदासजी म. के शिष्य श्री मूलचन्द्रजी म० से की आज्ञा से नव प्रदर्शित साध्वाचार को पालन करने लिबडी सम्प्रदाय, गोंडल सायना सम्प्रदाय, चूडा के लिये उद्यत हुए । इसके बाद प्राचार की उप्रता के सम्प्रदाय, बोटाद सम्प्रदाय, और कच्छ छोटा का कारण इस सम्प्रदाय का प्रचार वायुवेग को तरह पक्ष, निकले । धर्मदासजी म० के दूसरे शिष्य धन्नाजी होने लगा और हजारों श्रावकों ने अनुसरण किया। म० से जयमलजी म. का सम्प्रदाय, रघुनाथजी म.
लौकाशाह के बाद ऋषि माणजी, भीदाजी, संप्रदाय और रत्नचन्द्रजी म० का संप्रदाय निकने । गजमलजी (नगमालजी), सरवाजी, रूप ऋषिजी और धर्मदासजी म० तीसरे शिष्य पृथ्वीराजजी से एकलिंग श्री जीवाजी क्रमशः पट्टधर हुए। यह लौंकाशाह के जी म० का संप्रदाय निकला | धर्मदासजी म०के नाम से लौकागच्छ कहलाया । लौकागच्छ के प्राचार्य चौथे शिष्य मनोहरदासजी से पृथ्वीचन्द्रजी म.का जीवाजी के तीन शिष्य हुए-१ कुवरजी की परम्परा संप्रदाय निकला। घमंदासजी ० के पांचवे शिष्य में श्रीमलजी, रत्नसिंहजी, शिवजी ऋषि हुए। रामचन्द्रजी म. से माधवमुनि म. का संप्रदाय निकला।
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