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जैन श्रमण संघ का इतिहास
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बने थे । ये प्राचार्य हेमचन्द्र बड़े विद्वान और 'प्रमाणनयतत्वालोक' नामका सूत्रप्रन्थ लिखा और साहित्य निर्माता थे। इनके ग्रन्थों का प्रमाण लगभग उस पर स्याद्वादरत्नाकर नामक वृहत्काय टीका एक लाख श्लोक का है
लिखी। इनमें इन्होंने अपने समय तक की समस्त ___ इन प्राचार्य ने माभिनेमि द्विसधान काव्य की दार्शनिक चर्चाओं का संग्रह कर दिया है तथा वन्य रचना की। यह ऋषभवदेव और नेमिनाथ दोनों को वादियों की युक्तियों का सपोट उत्तर दिया है। समानरूप से लागू होता है अतः द्विसंधान काव्य इसकी भाषा काव्यमय और आह्लादक है। न्यायप्रन्थों कहा जाता है। दे भद्रसूरि-ये नवाँगी टीकाकार में इसका उच्चस्थान है । इनका स्वर्गवास सं० १२२६ अभयदेव के सुशिष्य थे। इन्होंने आराहणासत्य, में (कुमारपाल के समय में ) हुआ। वीरचरियं, कहारयण कोस, पार्श्वनाथ चरित्र श्री सिंह व्याघ्रशिशुः- वादीदेव के समकालीन रचना की।
आनन्दसूरि और अमरचन्द सूरी हुए। ये नागेन्द. मुनि चन्द्रसूरिः-चे वृहद्गच्छ के यशोभद्र गच्छ के महेन्द,सूरी-शान्तिसूरी के शिष्य थे । बाल्या. और नेमिचन्द्र के शिष्य थे। ये बड़े तपस्वी थे और वस्था से ही वाद प्रवीण होने से तथा कई वादियों सोवीर ( कांजी ) पीकर रहे जाते इसलिए सौवार को याद में पराजित करने से सिद्धराज ने इन्हें क्रमशः पायी' भी कहे जाते हैं। इनकी आज्ञा में पांच सौ 'व्याघ्राशिशुक' और 'सिंह शिशुक' की उपाधि दो श्रमण थे। इन्होंने कई ग्रन्थों पर टीकयें लिखी हैं। थी। अमरचन्द मरी का सिद्धान्तार्णव ग्रन्थ था
कई छोटे २ प्रकरण प्रन्य लिखे हैं। ये प्रसिद्ध लेकिन वह उपलब्ध नहीं है। वादिदेवसूरि के गुरु थे।
श्री चन्द्रसूरिः- ये मलधारी हेमचन्द के शिष्य वादी देवमूरि-इनाका जन्म गुर्जरदेश के महाहृत थे। इन्होंने संग्रहणी रत्न और मुनिसुव्रत चरित्र ग्राम में प्राग्वाट (पोरवाड़ ) वणिक कुल में सं० (२०६६४ गाया ) की रचना की । हेमचन्द के दूसरे ११४३ में हुआ था। सं० ११५२ में नौ वर्षको अवस्था शिष्य विजयसिंह सूरि ने धर्मोपदेशमाला विवरण में इन्होंने दीक्षा धारण की और ११७४ में आचार्य (१४४७१६ श्लोक प्रमाण) लिखा । हेमचन्द के तीसरे पद परआरूढ़ हुए। ये प्राचार्य वादकुशल होने से शिष्य विबुधचन्द ने 'क्षेत्रसमास' तथा चतुर्थ शिष्य वादी की उपाधि से सम्मानित हैं सिद्धराज की सभा लक्ष्मण गणो ने 'सुपासनाह चरिय' लिया। में इन्होंने दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र से शास्त्रार्थ कवि श्रीषालः-सिद्धराज जयसिंह का विद्वात्स। कर विजय प्राप्त की थी मिद्धराज ने इन्हें जय्यत्र के सभापति कविराज श्रीपान थे। ये पारवाड़ वैश्य और लक्ष स्वर्ण मुद्रा तुष्टि दान देना चाहा परन्त उन्होंने जन थे । इन्होंने एक दिन में धैरोचन पराजय' नामक अस्वीकार कर दिया। महामन्त्री प्राशुक की सम्मति चक्रवर्ती की उपाधि दी थी। इनके ग्रंथ सहस्त्रलिंग
' महाप्रबन्ध बनाया जिससे सिद्धराज ने इन्हें 'कविसे सिद्धराज ने इस दृव्य से जिनप्रसाद करवाया। सरोवर प्रशारित, दुर्लभ सरोबर प्रशास्ति, रूद्रमाल
ये आचार्या बड़े नैयायीक थे। इन्होंने न्यायशास्त्र का प्रशस्ति, और और आनंदपुर प्रशस्ति है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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