Book Title: Jain Shraman Sangh ka Itihas
Author(s): Manmal Jain
Publisher: Jain Sahitya Mandir

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Page 96
________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास auloME HANDS IN INSTIHINDolimanoj to ouTD Ili> TIHU Ibonia Hi> <lIL.INDONIT HISTill Win OIR !NSKollin 12 solil billoonl OINS IDOLa आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इसके सिवाय अपने गुरुदेव श्री गुलाबचन्दजी महाराज की नेत्राय 'जनप्रकाश', 'रुक्मिणी रास', आदि अनेक ग्रन्थों का में रहकर गहन अध्ययन किया। संस्कृत भाषा में भी आपके द्वारा निर्माण हमा। आपकी कविताएं अस्खालत रूप से धाराप्रवाही प्रवचन करते थे। अनेक गद्य-पद्यात्मक काव्य आपके द्वारा रचे गये हैं। संगीतमय, भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी होता थी। संवत् अर्धमागधी कोष तैयार कर आपने आगमों के अध्ययन १९०७ में होशियारपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। का मार्ग सरल और सुगम बना दिया है। साहित्यपूज्य श्रीनन्दलालजी महाराज वचनसिद्ध शिष्य हुए। संशोधन करने वाले विद्वानों के लिए आप द्वारा मुनि श्री किशनचन्द्रजी महाराज ज्योतिष शास्त्र के निर्मित यह कार्य अत्यधिक सहायकरूप है। पण्डित थे, रूपचन्दजी महाराज वचनसिद्ध तपस्वी जैन सिद्धान्त कौमुदी' नाम का सुबोध प्राकृत मुनिराज थे और मुनि श्री किशनचन्दजी महाराज की व्याकरण भी आपने तैयार किया है । 'कत्त व्यकौमुदी' र और 'भावना शतक' सृष्टिवाद और ईश्वर' जैन परम्परा में अनुक्रम से मुनि श्री बिहारीलालजी, प्रन्थों की भी आपने रचना की है। न्यायशास्त्र के महेशचन्द्रजी, वृपभानजी तथा मुनि श्री सादीरामजी भी आप प्रखर पंडित थे। अवधान-शक्ति के प्रयोग के नाम उल्लेखनीय हैं। के कारण आप शतावधानी कहलाये । समाज सुधार पूज्य श्री लाधाजी स्वामी और संगठन के कार्य में आपको खूब रस था। अजमेर पूज्य श्री लाधाजी स्वामी कच्छ-गुदाला ग्राम के के साधु संमेलन में शान्ति-स्थापकों में आपका अग्र गण्य स्थान था। जयपुर में आपको 'भारत रत्न' को निवासी श्री मालसीभाई के सुपुत्र थे। आपने संवत् उपाधि प्रदान की गई थी। साधु-बुनिराजों के संगठन १६०३ में बांकानेर में दीक्षा ग्रहण की और संवत् के लिए आप सदा प्रयत्नशील रहते थे। घाटकोपर में १९६३ में आपको आचार्य-पद प्रदान किया गया। आपने “वीर संघ' की योजना का निर्माण किया था। तत्कालीन विद्वान संतों में पाप प्रख्यात विद्वान् संत वि० सं० १६४० में आपको शारीरिक व्याधि थे। जैन-शास्त्रों का अध्ययन करके "प्रकरण संग्रह" उत्पन्न हुई। उसकी शल्य-चिकित्सा की गई किन्तु नामक ग्रन्थ को आपने रचना की। यह ग्रन्थ सर्वत्र में स्वर्गवास हो गया। आयुष्य पूर्ण हो जाने के कारण आपका घाटकोपर उपयोगी सिद्ध हुआ है । प्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्रवेत्ता श्रीसदानन्दी छोटेलालजी महाराज आप हो के शिष्य पूज्य श्री मणिलालजी महाराज हैं । श्रीलाधाजी स्वामी के पश्चात् मेघराजजी स्वामी पूज्य श्री मणिलालजी महाराज ने वि० संवत् और इनके बाद पूज्य देवचन्द जी स्वामी हुए। १६४७ में घोलेरा में दीक्षा ग्रहण की थी। श्राप शास्त्रों के गहन अभ्यासी थे। ज्योतिष विद्या में भी शतावधानी पं० रत्नचंदजी महाराज भाप निष्णात थे । "प्रभु महावीर पट्टावलो" नामका __ शतावधानी पं० रत्नचन्द्रजी महाराज ने अपनी ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखकर आपने समाज की उल्लेखपत्नी के अवसान के बाद दूसरी कन्या के साथ किये नीय सेवा की है। "मेरी विशुद्ध भावना" और शास्त्रीय विषयों पर प्रश्नोत्तर के रूप में भी आपने गए सम्बन्ध को छोड़कर दीक्षा ग्रहण की। सं० १९३६ पुस्तकें लिखी हैं। अजमेर के साधु-संमेलन में श्राप में भोरारा ( कच्छ में आपका जन्म हुआ था। एक अग्रगण्य शान्तिरक्षक थे। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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