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जैन श्रमण संघ का इतिहास
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निर्मान्प्रवचन, भगवान् महावीर की जीवनी, 'पद्यमय जैन रामायण', मुक्तिपथ, आदि प्रसिद्ध हैं । आप द्वारा निर्मित पदों का 'जैनसुबोध' गुटका' नाम से एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है ।
संयोग की बात देखिए कि रविवार (कार्तिक शु० १३, सं० १६३४) को नीमच में आपका जन्म हुआ, रविवार (फाल्गुन शु० ५ सं० १६५२ ) को आपने दीक्षा अंगीकार की और रविवार (मार्गशीर्ष शु० ६ सं० २००७) को ही कोटा में आपका स्वर्गवास हुआ । सचमुच रवि के समान तेजस्वी जीवन आपको मिला ।
भारतीय संस्कृति के मननशील मनीषी आचार्य श्री जीतमलजी म० जिनका जन्म सं० १८२६ में रामपुरा में हुआ, पिता देवसेनजी और माता का नाम सुभद्रा था । यध्यात्मवाद के उत्प्रेरक आचार्य श्री सुजानमल जी के उपदेश से प्रभावित होकर सं० १८३४ में माता के साथ संयम के कठिन मार्ग पर अपने मुस्तैदी से कदम बढ़ाये |
आप दोनों हाथों और दोनों पैरों से एक साथ लिखते थे, चारों कल में एक साथ एक दूसरे से श्रागे बढ़ने का प्रयत्न करती थीं । १२ लाख श्लोकों की प्रतिलिपियाँ करना इसका ज्वलंत उदाहरण है। जैनजैनेतर के भेद-भाव के बिना, किसी भी उपयोगी ग्रंथ
श्राचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज को देखते तो उसकी प्रतिलिपि कर देते थे, यही
कारण है कि आपने ३२ वक्त, बत्तीस आगमों की ज्योतिष, वैद्यक, सामुद्रिक -गणित, नीति, ऐतिहासिक, सुभाषित, शिक्षाप्रद औपदेशिक आदि विषयों के ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ की ।
चित्रकला के प्रति आपका स्वाभाविक आकर्षण था। जैन श्रमण होने के नाते धार्मिक, औपदेशिक, कथा-प्रसंगों को लेकर तथा जैन भौगोलिक नक्शे और कल्पना के आधार पर ऐसे चित्र चित्रित किये हैं जिन्हें देख मन-मयूर नाच उठता है । उनके जीवन
आपके पिता श्री गंगारामजी तथा माता श्री केसर बाई ऐसे सपूत को जन्म देकर धन्य हो गए । नीमच ( मालवा) पावन हो गया ।
चित्तौड़ में आपके नाम से श्री चतुर्थ जैन वृद्धाश्रम नामक एक संस्था चल रही है। कोटा में आपकी स्मृति में अनेक सार्वजनिक संस्थाओं का सूत्रपात हो रहा है।
मरुधर
श्रद्धेय पूज्य श्री अमरसिंहजी म० एक महान् चाये थे, जिन्होंने भारत की राजधानी दिल्ली में जन्म लिया और वहीं शिक्षा-दीक्षा पाई ।
पूज्य श्री लालचन्द्रजी म० की वाग्धारा को श्रवण कर सं० १०४१ में, भरी जवानी में स्त्री का परित्याग कर, दोक्षा अंगीकार की। सं० १७६१ में आप आचार्य बने, संवत् १७५७ में दिल्ली में वर्षावास व्यतीत किया, बहादुर शाह बादशाह उपदेश से प्रभावित हुआ ।
जोधपुर के दीवान बिसिंहजी भण्डारी के प्रेम भरे आग्रह को टाल न सके तथा अलवर, जयपुर, अजमेर होते हुए मरुधर के प्रांगण में प्रवेश किया ।
सोजत में जिन्द को प्रतिबोध देकर मस्जिद का जैन स्थानक बनाया, जो कि आज भी कायाकल्प कर उस अतीत का स्मरण करा रहा है ।
श्री जीतमलजी महाराज
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