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जैन श्रमण संघ-संगठन का वर्तमान स्वरूप जैनधर्म के मुख्यतया दो सम्प्रदाय है:-(१) श्वेता. समय दोनों प्रकार की परम्पराएं थी। उनके संघ में म्बर और (२) दिगम्बर । यह भेद सचेल-अचेल सचेल परम्परा भी थी और अचेल परम्परा भी थी। के प्रश्न को लेकर हुआ है। भगवान महावीर से भगवान महावीर स्वयं अचेलक रहते थे उनके पहले सचेल परम्परा भी थी यह बात उपलब्ध जैन आध्यात्मिक प्रभाव से आकृष्ट होकर अनेक अनगारों बागम साहित्य और बौद्ध साहित्य से सिद्ध होता ने अचेल धर्म स्वीकार किया था। इतना होते हुए भी है। उत्तराध्ययन सूत्र के केशि-गौतम अध्ययन से इस अचेलकता सर्व सामान्य रूप में स्वीकृत नहीं हुई बात पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । भगवान् पाश्वनाथ थी। अनेक श्रमणनिप्रन्य सचेलक धर्म का पालन की परम्परा के प्रतिनिधि श्रीकेशी ने भगवान महावीर करते थे । निशियों ( साध्वियों ) के लिए तो के प्रधान शिष्य गौतम से प्रश्न किया है कि भ० अचेलकत्व की अनुज्ञा थी ही नहीं। पाश्वनाथ ने तो सचेल धर्म कथन किया है और भगवान महावीर के शासन में अचेल-सचेल का भगवान महावीर ने अचेल धर्म कहा है। जब दोनों कोई आग्रह नहीं रखा गया। इसलिये पार्श्वनाथ की का उद्देश्य एक है तो इस भिन्नता का क्या प्रयोजन परम्परा के अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थ भगवान महावीर है ? इस पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान की परम्पग में सम्मिलित हुए। भगवान महावीर के महावीर से पहले सचेल परम्परा थी और भगवान् संघ में अचेल-सचेल धर्म का सामञ्जस्य था। दोनों महावीर ने अपने जीवन में अचेल परम्परा को स्थान परम्परायें ऐच्छिक रूप में विद्यामान थी। जो श्रमण दिया।
निम्रन्थ अचेलत्व को स्वीकार करते थे वे जिनकल्ग भगवान् महावीर ने भी दीक्षा लेते समय एक कहलाते थे और जो निर्मन्ध सचेलक धर्म का वस्त्र धारण किया था और एक वर्ष से कुछ अधिक अनुसरण करते थे वे स्थविरकल्पो कहलाते थे। काल के बाद उन्होंने उस वस्त्र का त्याग कर दिया भगवान महावीर ने अचेलत्व का श्रादर्श रखते हुए और सर्वथा अचेलक बन गये, यह बर्णन प्राचीनतम भी सचेलत्व का मर्यादित विधान किया। उनके आगम ग्रन्थ श्री आचारांग सूत्र में स्पष्ट पाबा समय में निग्रन्थ परम्परा के सचेल और अचेल जाता है।
दोनों रूप स्थिर हुए और सचल में भी एक शाटक बौद्ध पिटकों में "निग्गठा एक साटका" जैसे ही उत्कृष्ट प्राचार माना गया। शब्द आते हैं । यह स्पष्टतया जैन मुनियों के लिये प्राचीनता की दृष्टि से सचेलता की मुख्यता कहा गया है। उस काल में जैन अनगार एक वात्र और गुण दृष्टि से अचलता की मुख्यता स्वीकार कर रखते थे अतः बौद्ध पिटकों में उन्हें 'एक शाटक' भगवान महावीर ने दोनों अचेल सचेल परम्परामों कहा गया है। प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में का सामजस्य स्थापित किया । भगवान महावीर के. अचेलक, एक शठक द्विशाटक और अधिक से पश्चात् लगभग दो सौ दाई सौ वर्षों तक यह अधिक त्रिशाटक के कल्प का वर्णन किया गया है। सामञ्चज्य बराबर चलता रहा परन्तु बाद में दोनों इससे यह मालूम होता है कि भगवान महावीर के पक्षों के अभिनिवेष (खिंचातानी ) के कारण निर्मम
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