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जैन श्रमण संघ का इतिहास
१०० MITIDIHD COIL-HD-TIRUCHIDATIAHILEONITINo TIRUICONTAIND-DINIHIS-THI 1|NDI\ \UNDATIT IS HDPID SOLANHID-OINTIDIARNID KOTARAID OILE चन्द्रगच्छ
यात्रा कर आबू तीर्थ की यात्रार्थ गये हुए थे वहाँ
तलेटी के एक ग्राम में एक बड़वृक्ष के नीचे बैठे हुए निन्य गच्छ के १३ में पट्टधर आचार्य वजी
थे वहाँ आकाश में कोई अनोखा 'ग्रहयोग' होते स्वामी हुए । ये अन्तिम दश पूर्व धर थे। दिगम्बर
देखा । इस अवसर को शुभ मुर्हत जान कर वी० नि. परम्परा में इन्हें द्वितीय भद्रबाहू के नाम से उल्लेख
सं० १४६४ वि० सं० १६४ में किया गया है। इन भाचार्य के नाम से 'वजशाला'
आपने सनदेव सूरि
आदि प्रमुख ८ शिष्यों को एक साथ आचार्य पदवी बनी। प्राचार्य वन स्वामी के समय विक्रम की दूसरी
प्रदान की और आशीर्वाद दिया कि "तुम्हारी शिष्य शताब्दी में सत्तर भारत में फिर से १२ वर्ष का भीषण
संतति बदके समान फलेगी फूलेगी। बड़ नीचे दुष्काल पड़ा। उस समय आचार्य श्री ५०० शिष्यों
आचार्य पद प्राप्त होने से श्री सौदेव सूरि आदि की को साथ ले दक्षिण भारत की एक पहाडी पर जाकर
शिष्य परम्परा का नाम "बड़ गच्छ” प्रसिद्ध हुआ। अनशन लीन हए। उनके एक शल्लक शिष्य ने पास '
सचमुच प्राचार्य सर्ग देव सूरि की शिष्य सन्तति वाली दूसरी पहाडी पर अनशन किया। केवल
बड़ वृक्ष की हो तरह विस्तृत हुई। आचार्य श्री के एक शिष्य श्री वसेनसूरि ने प्राचार्य
इस समय तक नागेन्द्र आदि गच्छों के अन्तर्गत श्री की श्रानानुसार अपनी श्रमण परम्परा चालू रखने
८४ गच्छ बन चुके थे। कुछ स्थानों पर ऐसा भी की दृष्टि से बम्बई प्रान्त के सोपारा स्थान में जाकर
उल्लेख है कि प्राचार्य उद्योतन सरिजी ने बड़ वृक्ष सेठ जिनदत्त, सेठानी ईश्वरी के पुत्र नागेन्द्र, चन्द्र के नीचे तप लीन अवस्था में एक आकाश वाणी सुन निवृत्ति तथा विद्याधर चारों की दुष्काल से रक्षा कर
कर अपने ८४ विद्वान साधुओं को एक साथ आचार्य उन्हें अपने शिष्य बनाये। ये चारों बाद में प्राचार्य
बनाया और इन्हीं ८४ आचार्यों से ९४ गच्छ बने । बने । इन चारों प्राचार्यों ने वी. नि० सं० ६३० के
कुछ भी हो चन्द्र गच्छ और बड़ गच्छ एक ही पेड़ आस पास नागेन्द्र गच्छ, चन्द्र गच्छ, निवृत्ति गच्छ
त "१ की दो शाखाएं हैं । इन ८४ गच्छों के नाम स्थानाभाव तथा विद्याधर गच्छ की स्थापना की। समयान्तर से से यहाँ नहीं देकर भागे परिशिष्ट भाग में देंगे। इन चारों गच्छों में से भिन्न २ नामों से ८४ गच्छ इस समय तक चन्द्रकुल गच्छ, पूर्णतल गच्छ
नाणक पुराय गच्छ (शंखेश्वर गच्छ) 'कालिकाचार्य, वनवासी गच्छ
आवड़ा, मलधारी, थिरापद्री, चैत्र बाल, ब्राह्मण उपकेश प्राचार्य चन्द्रसरि के पार पर प्राचार्य समन्त गच्छ बादि गच्छों का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध भद्रसरि हुए । आप बड़े ही विद्वान् तथा घोर तपस्वी था। घड़गच्छ के समय में ही समाचारी भेद के थे। शास्त्रानुकूल किया पालने में बड़े कठोर थे और कारण पुनमिया वि० सं० ११५६ चामु डिक, (१२०१) अधिकतर देवकुल, शून्य स्थान तथा वनों में जाकर खरतर (१२०४ ) अचल (१२१३) सार्ध पुनमिया ध्यान मग्न रहते थे। इसी से उनकी शिष्य परम्परा
(१२३६ ) आगमिक ( १२५०) श्रादि गच्छों की भी
उत्पत्ति हुई। . "वन वासी गच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुई इसका समय वीर नि० सं० ७०० के आस पास का है।
विक्रम की १३ वीं सदी में भ० महावीर के ४४ वें निग्रन्थ गच्छ का यह चौथा भेद है।
पट्टधर आ० श्री जगच्चन्द्रसूरि ने सं० १२७३ में
चैत्रवाल गच्छोय आ० भुवनचन्द्र सूरि के साथ बड़ गच्छ
क्रियोद्धार किया। भापही तपा गच्छ के संस्थापक भगवान महावीर स्वामी के ३५ में पट्टपर प्राचार्य आचार्य है। अब आगे के अध्याय में जैन श्रमण संघ उद्योतन सरि एक बार श्री सम्मेतशिखर तीर्थ की के वर्तमान विद्यमान भेद प्रभेदों का वर्णन देते हैं।
बने।
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