________________
१०२
जैन श्रमण संघ का इतिहास amosoluuuNSOUNatiseATERIDADHURIMAD INHIDI | DET22:10-TIPAHINID-mumto Ho |oolTIUIDAI || TARINIDIATRIC STRIMID-In परम्परा में विकृतियां आने लगी। उसका परिणाम स्याद्वाद के अमोघ सिद्धान्त के द्वारा जगत् के श्वेताम्बर और दिगम्बर नामक दो भेदों के रूप में समस्त दार्शनिक वादों का समन्वय करने वाला प्रकट हुआ। वे भेद अबतक चले आ रहे हैं। जैनधर्म कालप्रभाव से स्वयं मताग्रह का शिकार
हुआ। आपस में विवाद करने वाले दार्शनिकों और भारत के विस्तृत प्रदेशों में जैनधर्म का प्रसार विचारकों का समाधान करने के लिये जिस न्यायाधीश हुआ । दक्षिण और उत्तर पूर्व के प्रदेशों में दूरी का
तुल्य जैन धर्म ने अनेकान्त का सिद्धान्त पुरस्कृत व्यवधान बहुत लंबा है । प्राचीन काल में यातायात
कियां था वही स्वयं आगे चलकर एकान्त वाद के के साधन और संदेश व्यवहार की सुविधा न थी
चक्कर में फंस गया । सचेल और अचेल धर्म के अतः प्रत्येक प्रांत में अपने अपने ढंग से संघों की
एकान्त आग्रह में पड़कर निर्गन्य परंपरा का अखन्ड संघटना होती रही। दुष्काल और अन्य परिस्थिति के
प्रवाह दो भागों में विभक्त हो गया। इतने ही से खैर कारण पूर्व प्रदेश में रहे हुए अनगारों के प्राचार
नहीं हुई, दोनों पक्ष एक दूसरे के प्रतिद्वन्दि बनकर विचार और दक्षिण में रहे हुए श्रमणों के प्राचार
अपनी शक्ति को क्षीण करने लगे। दोनों में परस्पर विचार में परिवर्तन होना स्वाभाविक ही था । काल
विवाद होता था और एक दसरे का बल क्षीण किया प्रवाह के साथ यह भेद तीक्ष्ण होता गया । मत भेद
जाता था। दिगंबर संप्रदाय दक्षिण में फूला फला इस सीमा तक पहुँचा कि दोनों पक्षों के सामंजस्य
और श्वेतांबर संप्रदाय उत्तर और पश्चिम में । को सद्भावना बिल्कुल न रही तब दोनों पक्ष स्पष्ट
दक्षिण भारत दिगंबर परंपरा का केन्द्र बना रहा और रूप से अलग २ हो गये वे दोनों किस समय और
पश्चिमी भारत श्वेतांबर परंपरा का केन्द्र रहा है। कैसे स्पष्ट रूप से अलग हो गये, यह ठीक ठीक नही
आज तक दोनों परंपराएँ अपने अपने ढंग पर चल कहा जा सकता है। दोनों पक्ष इस संबन्ध में अलग
रही हैं। अलग मन्तव्य उपस्थित करते हैं और हर एक अपने
___ कालान्तर में चैत्यवासी अलग हुए । श्वेताम्बर आपको महावीर का सच्चा अनुयायी होने का दावा
संघ में अनेक गच्छ पैदा हुए। दिगम्बर परम्परा में करता है और दूसरे को पथभ्रान्त मानता है। भी नाना पंथ प्रकट हुए। इस तरह निथ परम्परा श्वेतांवर मत के अनुसार दिगबर संप्रदाय की उत्पत्ति
अनेक भेद प्रभेदों में विभक्त हो गई। वीर निर्वाण संवत् ६०६ (वि० सं० १३६, ईस्वी सन् यहां संक्षेप से जैन सम्प्रदाय के मुख्य २ भेद
३) में हुई और दिगंबरों के कथानानुसार श्वेतांबरों भेदों का थोड़ा सा परिचय दिया जाता है। की उत्पत्ति वीर निर्वाण सं०६०६ (वि० सं० १३६,
दिगम्बर सम्प्रदाय ई० सन् ८०) में हुई । इस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि निन्थपरंपरा के ये दो भेद स्पष्ट इस परम्परा का मूल बीज अचेलकत्व है। सर्व रूप से ईसा की प्रथम शताब्दी के चतुर्थ चरण में परिग्रह रहितता की दृष्टि से वस्त्ररहिता (नग्नता)
के आग्रह के कारण इस भेद का प्रादुर्भाव हुमा
Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com