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जैन श्रमण संघ का इतिहास
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भी लेते गये। वहां यतिजो से भेंट हुई। सामुद्रिक चातुर्मास पूर्ण कर श्राप दादा श्री जिनदत्त सूरिजी शास्त्र के ज्ञाता यतिजी ने बालक के भविष्य में के समाधिस्थल अजमेर नगर पधारे। यशस्वी बनने की बात बताई। इस पर पादरमलजी यहाँ चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से आपने ने बालक मोहन को इन यतिजी के पास शिक्षार्थ रख सम्पूर्ण परिग्रह को त्याग लाखन कोठड़ी स्थित भगवान दिया। यतिजी भगवान महावीर के ७० में पट्टधर संभव नाथजी के मन्दिर में जा भगवान के सम्मुख पाचार्य श्रीहर्ष सरिजी द्वारा दीक्षित शिष्य थे। यतिजी ४३ वर्ष की आयु में स्वतः ही क्रियोद्धार कर संवेग के पास रह प्रखर बुद्धि के धनि श्री मोहनलालजी ने भाव धारण कर मुनि बन गये। आपके मुनि नेष अल्प समय में ही जीवविचार नव तत्व, पंच प्रति- धारण करने से जैन संघों में सर्वात्र हर्ष छागया। क्रमण आदि का अध्ययन कर लिया और यति मुनि अवस्था में आपका प्रथम चातुर्माप संवत् दीक्षा लेने का आग्रह करने लगे। परम्परा के अनुसार १६३१ में पाली हुआ। आपकी प्रखर ज्ञान परिपूरित यतिदीक्षा श्री पूज्यजी ही दे सकते हैं इसलिये इन्हें व्याख्यान शैली तथा उच्च क्रिया पालन से आपकी तत्कालीन श्री पूज्य श्री जिन महेन्द्र सरिजी के पास कीर्ति कौमुदी चमक उठी । सिरोही नरेश श्री केशरइन्दौर भेजा । श्री पून्यजी मोहनलालजी को साथ ले सिंहजी ने स्वयं दर्शनार्थ आकर सिरोही चातुर्मास यक्षीजी तीर्थ पधारे और वहीं वि० सं० १६०२ में की विनंति की। सं० १६३२ का चातुर्मास सिरोही इन्हें यति दीक्षा दी और भोपाल होते हुए इन्हें वापस हुआ | सातवाँ चातुर्मास जोधपुर हुआ जहाँ आलमनागौर भेज दिया।
चन्दजी, जसमुनि, कांति मुनि, हर्ष मुनि आदि शिष्य वि० सं० १९१० चैत्र शुक्ला ११ को यति श्री बने । सं० १६४४ का चातुर्मास अहमदाबाद किया रूपचन्दजी का बनारस में स्वर्गवास होगया । शोका- और तबसे आपका विहार क्षेत्र गुजरात बन गया। कुल यति मोहनलालजी को श्री पूज्य जी जिन महेन्द्र आप सम्प्रदाय वाद से सदा दूर रहते थे और सरिजी ने अपने पास लखनऊ रक्खा। सं० १६१४ जैन संघ में सम्प बढ़ाने को प्रयत्नशील रहते थे। में श्रीपूज्यजी का भी स्वर्गवास होगया। इससे आपको यही कारण है कि सभी गच्छों और समुदाय के साधु गहरी वेदना हुई । शोक निवारार्थ आप श्री छुट्टनलाल व श्रावक वर्ग में आपका अच्छा सन्माननीय स्थान जी जौहरी के संघ के साथ पालीतासा पधारे । वहाँ था। आपके शिष्य वर्ग की संख्या भी काफी बढ़ने से कलकत्ता पधारे । कलकत्ते के एक जैन मन्दिर में लगी। हर्ष मुनि उघोतन मुनि राज मुनि, देव मुनि प्रभु समक्ष ध्यानावस्था में आपको आत्म जागृति हुई आदि शिष्य हुए। वि० सं० १:४७ में आप बम्बई कि अब मुझे यति अवस्था को त्याग कर संवेगी साधु के भायखला से लालबाग पधारे। यहां मुनिराजों के अवस्था ग्रहण करलेना चाहिये । आपने तब से उतरने का कोई स्थान न था अतः आप श्री के उपदेश ही अधिक परिग्रह बढ़ाने के त्याग कर लिये। से मुर्शिदाबाद निवासी सेठ बुधसिंहजी दुधेडिया ने
सं. १६३० में आपका चातुर्मास जयपुर में हुआ। लालबाग में नवीन धर्मशाला बनाने हेतु १६ हजार
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