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महाप्रभाविक जेनाचार्य
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अनवराघव टिप्पन, न्यायकंदली (श्रीधर ) टीका, 'प्रत्येक बुद्ध चरित्र' नामक १७ सर्ग का महाकाव्य ज्योतिः सार और चतुर्विशति जिन स्तुति । इनके रचा। पूर्णकलश ने द्वयाश्रय पर वृत्ति रची । अभयशिष्य नरेन्द्रप्रभ ने अलंकार महोदधि की रचना को। तिलक-स० १३१२ में हेमचंदाचार्य के द्वयाश्रय इनके गुरू श्री देवप्रभसूरि ने पाण्डव चरित्र, मृगावती काव्य पर वृत्ति पूर्ण की। चरित्र और काकुल्थकेलि गन्थों की रचना की। ये भी जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । मुनिदेवसरि:माणक्यच दसूरि ने 'पार्श्वनाथ चरित्र', शांतिनाथ ये वादिदेवस िवश में मदनचन्दसरि के शिष्य थे। चरित्र और 'काव्य प्रकाश संकत' लिखे। इन्होंने संस्कृत में शांतिनाथ चरित्र और धर्मोपदेशदेवेन्द्रसरिः
माला पर वृत्ति रची। सिंहतिलक सूरि से १३२२ से ___ तपागच्छ के स्थापक जगच्चंद्रसूरि के पट्टधर २६ तक यशोदेवसरि के शिष्य बिबुधचंदसरि तच्छि. देवेन्द्रसरि हुर। इन्हों ने पांच कर्म गथों को नवीन ष्य सिंहतिलक सूरि ने वर्धमान विद्याकल्प, लीलारूप दिया । इन पर स्वोपज्ञ टोकाएँ भी लिखी । इसके वती वृत्तियुक्त, गणिततिलकवृति; मंत्रराज रहर, अतिरिक्त देवनंदन, गुरूवंदन और प्रत्याख्यान नामव और भुवनदीपक वृत्ति गंथ लिखा । प्रभाचंद सरि ने तीन भाष्य भी लिखे । सिद्ध पंचाशिका (?) धर्मरत्न संवत् १३३८ में प्रभावक चरित्र लिखा । उदयप्रभसरि टीका और श्रावकदिनकृत्यसवृत्ति गय भी इन्होंने विजयसेन के शिष्य उदयप्रभसूरि ने धर्माभ्युदय रचे हैं। दानादि कुलक, सुदर्शना चरित्र तथा भनेक काव्य लिखा। मल्लिषेण–इन्होंने भाचार्य हेमचंद स्तवनों तथा प्रकरणों की आपने रचना की है। इन जी अन्ययोगव्यवच्छेदिका द्वात्रिंशिका पर स्याद्वाद
आचार्य की व्याख्यानशैली बड़ी प्रभाविक थी इनके मंजरी नामक सुन्दर दार्शनिक टीका (सं० १३४६ में) व्याख्यान में (खम्भात के कुमार प्रासाद में) १८०० लिखी । मनुष्य तो सामायिक करने वैठते थे । वस्तुपाल मंत्री जिनप्रभसूरि लघु खरतरगच्छ प्रवर्तक निर्मिह भी इनके श्रोताओं में से एक थे । इनका स्वर्गवास सूरि के शिष्य जिनप्रभसूरि एक असाधारण प्रति. १३२७ में हुआ।
भावान ग थ निर्माता हुए हैं । इन्होंने विविध तीर्थधर्मघोषसरिः
कला-कल्पप्रदीप लिखे । इन सार के प्रतिदिन नया __ ये दवेन्द्रसरि के शिष्य थे। इन्होंने संघाचार
स्तवन बनाने की प्रतिज्ञा थी । इन्होंने विविध छन्दों भाष्य चैत्यवंदन भाष्य-विवरण लिखा। कान सप्ततो
में नई २ तरह के सात सौ स्तवन बनाये ऐसा कहा
जाता है। सावचूरि-कान स्वरूप विचार, श्राद्धजोतकल्प दुषमकाल सस्तोत्र और चातुवशक्ति जिनस्तुति की भी रचना को । इनके शिष्य सोमप्रभ ने यति जीतकल्प और नागेन्दगच्छ के चन्दप्रभसरि के शिष्य मेहतुग २८ यमकस्तुतियाँ लिखो।
सरि, ने सं० १३६१ में वर्धमानपुर में प्रबन्धचिंता. ये जिनेश्वरसरि के शिष्य थे इन्हा ने संस्कृत में मणि तथा विचारश्रोणो स्थविरावली लिखे। इसमें
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