Book Title: Jain Shraman Sangh ka Itihas
Author(s): Manmal Jain
Publisher: Jain Sahitya Mandir

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Page 79
________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य 8 EmaiUDIMILARIDAS DILLETIRIDDLEDONDAlinaliillo dillsbip lodinaulodIIMITED COMHIDARIDIHINoduuuutu ॐ यशोविजय जो ॐ लगे रहे । इन्होंने प्राकृत, संस्कृत और गुजराती भा .। अठारहवीं शताब्दी में हरिभद्र और हेमचन्द्र में विपुल प्रन्थ राशि की रचना की। न्याय, की कोटि में गिने जा सकने वाले महा प्रतिभासम्पन्न योग, अध्यात्म, दर्शन, धर्म, नीति, लण्डन मण्डन, विद्वान् श्री यशोविजयजी हुए। ये प्रखर नैयायिक, कथा-चरित्र, मूल और टीका-प्रत्येक विषय पर अपनी तार्किक शिरोमणी, महान शास्त्रज्ञ, प्रताशाली समन्व प्रोढ लेखनी चलाई। काशी में रहते हुए इन्हें यकार, उच्च कोटि के साहित्यकार, आचार, सम्पन्न 'न्यायविशारद' की उपाधि दी गई थी। इनके प्रन्य प्रभावक मुनि और महान सुधारक थे। ये हेमचन्द्र इस प्रकार हैं। द्वितीय कहे जा सकते हैं। अध्यात्मः-अध्यात्ममत परीक्षा, अध्यात्मसार, ___ इनकी प्रतिमा सवतोमुखी थी। पं० सखलालजी अध्यात्मोपनिषद्, आध्यात्मिकमतदलन स्वोपत्र टीका ने लिखा है कि-"इन के (यशोविजयजी के) समान उपदेश रहस्य, ज्ञानसार, परमात्म पचविशतिका, समन्वयशक्ति रखनेवाला, जैन जैनंतर ग्रन्थों का गम्भीर . परमज्योति पञ्चविंशतिका, वैराग्य कल्पलता, अध्यादहन करने वाला, प्रत्येक विषय के तल तक पहुँच मापदेश ज्ञानसार व चूणि । दार्शनिकः-अष्टसहश्री कर समभाव पूर्वक अपना स्पष्ट मन्तव्य प्रकट करने विवरण, अनेकान्त व्यवस्था ज्ञानबिन्दु जैनतकभाषा वाला, शास्त्रीय थौर लौकिक भाषा में विविध साहित्य देवधर्म परीक्षा, द्वात्रिंशत द्वात्रिंशिका, घनपरक्षा, की रचना कर अपने सरल और कठिन विचारों को नयपदीप, नयोपदेश, नयरहस्य, न्यायखएड खाद्य, सब जिज्ञासुओं तक पहुँचाने की चेष्टा करने वाला न्यायालोक, भाषा रहस्य वीरस्तव, शास्त्रवार्ता समुच्चय और सम्प्रदाय में रह कर भी सम्दाय के बंधनों की टीका, स्याद्वाद कल्पलता, उत्पादव्ययधौव्यसिद्धि परवाह न कर जो उचित मालूम हो उसपर निर्भयता टीका, ज्ञानार्णव, अनेकान्तप्रवेश, आत्मख्याति, तत्वापूर्वाक लिखने वाला, केवल श्वेताम्बर-दिगम्बर समाज लोक विवरण, त्रिसूत्र्यालोक, द्रव्यालोकविवरण, में ही नहीं बल्कि जैने तर समाज में भी उनके जंसा न्यायविन्दु, प्रमाणरहस्य, मंगलवाद वादमाला, वादकाई विशिष्ट विद्वान हमारे देखने में अबतक नहीं महाणव, विधिवाद, वेदान्तनिर्णय, सिद्धान्त तर्क आया। केवल हमारी दृष्टि से ही नहीं परन्तु परिष्कार, सिद्धान्तमंजरी टीका, म्यादाद मंजूषा, प्रत्येक तटस्थ विद्वान् की दृष्टि में भी जनसम्प्रदाय द्रव्यपर्याय युक्ति । आगमिकः-आराधक विराधक में उपाध्यायजी का स्थान, वैदिक सम्प्रदाय में शंकरा चतुर्भङ्गी, गुरुतत्व विनिश्चय, धमसग्रह टिप्पन, चाये के समान है।" निशाभक्त प्रकरण, प्रतिमाशतक, मार्गपरिशुद्धि, यतिल. इनका जन्म सं० १६८० में हुआ। गुरु का नाम क्षणसमुच्चय, सामाचारी प्रकरण कूपपरष्टान्द नविजय था । ८ वर्ष की अवस्था में काशी व आगरा विशदीकरण, तत्वार्थ टीका और अस्पृशद् ग तवाद । में रहकर उच्कोटि का ज्ञान उपार्जन किया। इसके योग–योगविधि का टीका, यागदापि।।, योगबाद की अपनी सारा अवस्था तक साहित्यसृजन में दर्शन विवरण । Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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