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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
HINOORTEOUS ORDIN CUCINANDO THEM INDOM
लक्ष्मी को ठुकरा कर मार्गशीर्ष कृष्ण वसवों के दिन पूर्ण अकिञ्चन भिक्षु के रूप में वे निर्जन वनों की ओर चल पड़े।
महावीर ने आत्मशुद्धि के लिए ध्यान, धारणा, समाधि और उपवास अनशन आदि सात्विक तप स्याओं का आश्रय लिया। वे मानव समाज से अलग दूर पर्वतों की कन्दराओं में और गहन बन प्रदेशों में रहकर आत्मा की अनन्त, परन्तु प्रमुप्त आध्यात्मिक शक्तियों का जगाने में ही संलग्न रहे । एक से एक भयंकर आपत्तियों ने उम्हें घेरा, अनेक प्रलोभनों ने उन्हें विचलित करना चाहा परन्तु भगवान हिमालय की तरह अडोल रहें । जिन घटनाओं का वर्णन पढ़ने से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वे प्रत्यक्ष रूप से जिस जीवन पर गुजरी होंगी वह कितना महान् होगा !
साधनाकाल में भगवान महावीर ने दीर्घ तपस्वी बन कर असह्य परिषद और उपसर्ग सहन किये । कठोर शीत, गरमी, डांस मच्छर और नाना शुद्र जन्तु जन्य परिवार को उन्होंने समभाव से सहन किया । बालकों ने कुतुहल वश उन्हें अपने खेलका साधन बनाया, पत्थर और कंकर फेंके। अनार्यों ने उनके पीछे कुत्ते छोड़े। स्वार्थी और कामी स्त्रो पुरुषों उन्हें भयंकर यातनाएँ दीं । परन्तु उन्होंने व्यरक्तद्रिष्ट मात्र में सब कुछ सहन किया । वे कभी श्मसान में रह जाते, कभी खंडहर में, कभी जगन में और कभी वृक्ष की छाया में। उन्होंने कभी अपने निमित्त बना हुआ आहार पानी महण नहीं किया शुद्ध भिक्षाचर्या से जो कुछ जैसा जैसा मिला उसीसे निर्वाह किया। उन्होंने साढ़े बारह वर्ष के लम्बे
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साधना काल में सब मिलाकर ३५० से अधिक दिन भोजन नहीं किया । कितनी कठोर साधना है !
उन महासाधक ने कभी प्रमाद का अवलम्बन नहीं किया । सदा अप्रमत्त होकर साधना में लीन रहे । रात्रि में भी निद्रा का त्याग कर ने ध्यानस्थ रहते । मानापमान को उस जितेन्द्रिय पुरुष ने समभाव से सदन किया । इस प्रकार आन्तरिक और बाह्य सत्र प्रकार के कष्टोंको उन्होंने जिस समभाव से सहन किया वह सचमुच विस्मय का विषय है । उनकी साधना काल का जीवन अपूर्णता की ओर प्रस्थित एक अप्रमत संयमी का खुला हुआ जीवन है । उन्होंने अपने जीवन के द्वारा अपने उपदेशों की व्यावहारिकता सिद्ध की है। जो कुछ उन्होंने अपने जीवन में किया, जिस कार्य को करके उनने अपना साध्य सिद्ध किया वही उन्होंने दूसरों सामने रक्खा। उससे अधिक कोई कठिन नियम उन्होंने दूसरों के लिए नहीं बताये । सचमुच महावीर का जीवन मानवीय आध्यत्मिक विकास का एक जीता जागता आदर्श है। वे केवल उपदेश देने वाले नहीं परन्तु स्वयं आचरण करने के बाद दूसरों को मार्ग बताने वाले सच्चे महापुरुष थे ।
भगवान् महावीर ने संसारिक सुखों को छोड़कर संयम का मार्ग अपनाते समय प्रतिज्ञा की थी कि मैं किसी भी प्राणी को पीड़ा न दूंगा, बर्ग सत्वों से मैत्री रक्खूँगा, अपने जीवन में जितनी भी बाधाएँ उपस्थित होंगी उन्हें बिना किसी दूसरे की सहायता
समभाव पूर्गक सहन करूँगा । इस प्रतिज्ञा को एक वीर पुरुष की तरह इन्होंने निभाया, इसीलिए ने महावीर कहलाये । अहिंसा और सत्य की निरन्तर
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