Book Title: Jain Shraman Sangh ka Itihas
Author(s): Manmal Jain
Publisher: Jain Sahitya Mandir

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Page 62
________________ દર जैन श्रमण संघ का इतिहास DamIPUD DAINIDdunity-II Dail25111410.DOI fill alInIDTIMDARIDADDINDUIDAm आधुनिक विद्वान पादलिप्तसूरी का समय विक्रम आधार पर न्यायावतार' ग्रन्थ की संस्कृत भाषा में की दूसरी सदी होने का अनुमान करते हैं । इसी रचना कर तर्कशास्त्र का प्रणयन किया ! न्यायावतार. दूसरी तीसरी सदी में दिगम्बर प्राचार्य गुणधर, में केवल ३२ अनुष्टुप श्लोकों में सम्पूर्ण न्यायशास्त्र पुस्पदंत भूतबलि ने कषाय पाहुडबर खण्डागम की के विषय को भर कर गागर में सागर भर दिया है । रचना की। न्यायावतार के अतिरिक्त आपकी दूसरी रचना शिवशर्म मूरि-आप कर्मविषयक प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सन्मतितर्क' है। इसमें तीम काण्ड हैं। पहले 'कम्मपयडी' के कर्ता है । आपने प्राचीन पंचम कर्म काण्ड में नय सम्बन्धी विषद विवेचन किया गया है। ग्रन्थ की भी रचना की है। सन्मति तक में नयवाद' के निरूपण के द्वारा प्राचार्य ने सब दर्शनों और वादियों के मन्तव्य को सापेक्ष श्री सिध्दसेन दिवाकर सत्य कह कर अनेकान्त को सांकल में कड़ियों की श्री सिद्धसेन दिवाकर सचमुच जैनसाहित्याकाश तरह जोड़ दिया है। इन्होंने सब दर्शनों को अने. के दिवाकर हैं। ये महान् तार्किक और गम्भीर कान्त का आश्रय लेने का सचाट उपदेश दिया है। स्वतंत्र विचारक आचार्य जैनसाहित्य में एक नवीनयुग सिद्धसेन जैसे प्रसिद्ध तार्किक और न्यायशास्त्र के प्रवर्तक हैं । जैन साहित्य में इनका वही स्थान प्रतिष्ठापक थे जैसे एक स्तुतिकार भी थे। इन्होंने है जो गैदिक साहित्य में न्यायसूत्र के प्रणेता महिष बत्तीस द्वात्रिंशिकाओं की रचना को, ऐसा कहा जाता गौतम का और बौद्ध-साहित्य में प्रखर तार्किक है किन्तु वत्त मान में १२ बत्तासियाँ हो उपलब्ध है नागार्जुन का है। इनकी उपलब्ध द्वात्रिशिकाओं में से ७ द्वात्रिशिकाए सिद्धसेन दिवाकर के पहले जैन वाङमय में स्तुतिमय है। इन स्तुतियों से यह झलकता है कि तर्क शास्त्रसम्बन्धी कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं था। भगवान महावीर के तत्वज्ञान के प्रति इनकी अपार आगमों में ही प्रमाणशास्त्र सम्बन्धी प्रकोण-प्रकोण श्रद्धा था। सिद्धसेन के जीवन के सम्बन्ध में जानने के बीजरूप तत्व संकलित थे। उस समय का युग तक लिए प्रभावक चरित्र का ही अवलम्बन लेना होता प्रधान न ह'कर आगम प्रधान था। ब्राह्मण और बौद्ध- है। इसके अनुसार ये विक्रमराजा के ब्राह्मण पुरोहित धर्म की भी यही परिस्थित थी परन्तु जब से महर्षि देवपि के पुत्र थे । माता का नाम देवश्रा था। गौतम ने न्यायसूत्र की रचना की तब से तर्क को जन्मस्थान विशाला (अवन्ती) है। सिद्धसेन जोर बढने लगा। सब धर्माचार्यों ने अपने २ सिद्धांतों बाल्यावस्था से ही कुशाग्र बुद्धि थे अतः उन्होंने सर्वके तक के बल पर संगठित करने का प्रयत्न किया। शास्त्रों में निपुणता प्राप्त की। वादविवाद करने में उस युग में ऐसा करने से ही सिद्धान्तों की रक्षा हो अद्वितीय होने से तत्कालीन समर्थवादियों में इनका सकती थी। युगधर्म को पहचान कर प्राचार्य सिद्ध. ऊँचा स्थान था। इन्हें अपने पाण्डित्य का बड़ा सेन ने आगमों में बीज रूप से रहे हुए प्रमाणनय के अभिमान था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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