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जैन श्रमण संघ का इतिहास I DEOHILAID THIMINSPINNORPIO -CITA ID politoralik lo-olhttp> <IMARIS GIRAHIS TOHAINISTIANHIS-Out NoRI:10- WISTOR
आर्य रक्षित-आगमों की प्रथम वाचना के समय चार्य के सभापतित्व में पीर निर्वाण सं० ८२८ से चार पूर्वन्यन पर १२ अंग व्यवस्थित किये जाकर ८४० के बीच श्रमणसंघ एकत्रित हुआ और जिसे श्रमणसंघ में प्रचारित किये गये । इस समय से अब जो याद था वह कहा । इस प्रकार कालिक श्रत और संघ में दशपूर्वधर ही रह गये। इस दशपूर्वी-परम्परा पूर्ण गत श्रुत को अनुसन्धान द्वारा व्यवस्थित करलिया का अन्त आचार्य वज्र के साथ हुआ आचार्य गया। मथुरा में यह संघटना हुई अतः यह माथुरी वज का स्वर्गारोहण विक्रम सं० ११४ (वीरात् वाचना कही जाती है । स्कान्दिलाचार्य के युगप्रधानत्व ५८४) में हुआ। दिगम्बर परम्परा के अनुसार में होने से यह स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग कहा दशपूर्वी का विच्छेद आचार्य धर्मसेन के साथ जाता है। वोरात् ३४५ में हुआ श्राचार्य वज़ के बाद आर्यरक्षित हुए। इन्होंने अनुयोगों का विभाग कर आये नागाजुन सूरि-जिस समय मथुरा में दिया। कालक्रम से श्रु तज्ञान का ह्रास होता गया। आचायो स्कन्दिल ने आगमों को व्यवस्थित करने का
आर्यरक्षित भी सम्पूर्ण नौ पूर्व और दशम पूर्ण के कार्य किया उसी समय वल्लभी में नागार्जुनसूरि ने भी २४ यविक मात्र के अभ्यासी थे। आर्यरक्षित भी श्रमणसघ को एकत्रित करके आगमों को व्यवस्थित अपना ज्ञान दूसरे को न दे सके । उनके शिष्यसमुदाय करने का प्रयत्न किया । वाचक नागार्जुन और एकमें से केवल दुलिका पुष्पमित्र ही सम्पर्ण नौ पूर्ण त्रित संघ को जो-जो भागम और उनके अनुयोगों पढ़ने में समर्थ हुआ किन्तु अभ्यास न करने कारण के उपरान्त प्रकरण ग्रन्थ याद थे वे लिख लिये गये नवमपूर्व को वह भूल गया। इस प्रकार उत्तरोत्तर और विस्तृत स्थलों को पूर्वापर सम्बन्ध के अनुसार पूर्वागत ज्ञान का ह्रास होता गया और वीर निर्वाण ठीक करके उसके अनुसार वायना दी गई।" के एक हजार वर्ष बाद ऐसी स्थिति हो गई कि एक इससे नागार्जुन ही वल्लभी वाचना के प्रवर्तक पूर्व का ज्ञाता भी कोई न रहा। दिगम्बरों की मान्य. विशेषतया सम्भवित हैं। तानुसार वीर निर्वाण सं० ६८३ में ही पूर्ण ज्ञान का प्राय देवद्धि क्षमा श्रमण विच्छेद हो गया।
वीरनिर्वाण संवत् ६८० (वि० सं० ५१० ) में आर्य स्कन्दिलाचार्य-वीरात् २६१ में सम्प्रति वल्लभीपुर में भगवान महावीर के २७ वें पट्टधर श्री राजा के समय भी दुष्काल हुआ। वीरात नौवीं शता. देवगिणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमण ब्दी में स्कन्दिलाचार्य के समय में पुनः बारह वर्ष का संघ एकत्रित हुआ। उस समय प्राचार्य स्कन्दिन अति भयंकर दुर्भिस हुआ । इससे अपूर्वा सूत्रार्थ का और आचार्य नागार्जुन को वाचनाओं का समन्वय ग्रहण और पठिन का पुनरावर्तन प्रायः अत्यन्त दुष्कर किया गया और उन्हें लिखकर पुस्तकारूढ कियागया । हो गया । बहुत सा अतिशययुक्त श्रुत भी विनष्ट हो उक्त वाचनाओं में रहे हुए भेद को मिटा कर यथाशक्य गया । तथा अंग उपाङ्ग आदि का भी परावर्तन न एकरूप दिया गया और महत्वपूर्ण भेदों को पाठान्तर होने से भावतः दुर्भिर के बाद मथुरा में स्कन्दिला- के रूप में संकलित एक लिया गया।
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