________________
जैन श्रमण संघ का इतिहास
HIDIINDAININD HIROID
!! UIDADINHID Julion GullimID_artilitis-MIRPIO-GIRIDHIRUID IND THID GIRAUD ATURALIDARIDAIm
पुरुषार्थ से कर सकता है और वह परमात्मा बन तरह आपने श्रमण संघ में चाण्डाल जाति के व्यक्ति सकता है । आत्मा पर लगे हुए कर्म के आवरणों को को भी मुनि दीक्षा देकर गुरुपद का अधिकारी सम्यग ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के द्वारा बनाया। "सक्खं खुदीसइ तो विसेमो न दीसइ दर कर प्रत्येक व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। जाइविसेस कोवि" अर्थात् “तप और संयम का (५) आत्मा स्वयं अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता वैशिष्ट्य है, जाति की कोई महत्ता नहीं" यह कह है। इस तरह भगवान् महावीर के उपदेश और कर चाण्डाल पुत्र हरिकेशी को भी मुनि संघ में सिद्धांतों को हम इन चार विभागों के समाविष्ट कर स्थान दिया और उसे ब्राह्मणों के यज्ञवाडे में भेज सकते हैं:-(१) अहिंसावाद (२) कर्मवाद (३) कर उनको भी पूजनीय बना दिया, यह भगवान साम्यवाद और (४) स्याद्वाद।
महावीर के सामाजिक साम्य का भव्य उदाहरण है। भगवान् महावीर की अहिसा-प्रधान उपदेश भगवान महावीर ने अहिंसा और समता के प्रणालीने आचार मार्गमें तथा व्यवहार में अहिंसा की आध्यात्मिक सिद्धान्तों को सामाजिक क्षेत्र में भी पुनः प्रतिष्ठा की। उनकी स्याद्वादमयी उदार दृष्टि सफलता पूर्वक प्रयुक्त किये । जैसाकि पं० सुखलालजी ने तत्वज्ञान और दार्शनिक विचार-संसार में नवीन ने लिखा है:दृष्टिकोण की सृष्टि की। उनके कमवाद ने मानव "महावीर ने तत्कालीन प्रबल बहुमत की अन्यायी जगत् को मानसिक दासता और आध्यात्मिक परत: मान्यता के विरुद्ध सक्रिय कदम उठाया और मेतार्य न्त्रता से मुक्ति दिलाई तथा पुरुषार्थ एवं स्वावलम्बन तथा हरिकेशी जैसे सब से निकृष्ट गिने जाने वाले का पुनीत पाठ पढ़ाया। उनके साम्यवाद के सिद्धांत अस्पृश्यों को अपने धर्मसंघ में समान स्थान दिलाने का ने जाति पांति के भेद को मिटा कर मानव मात्र की द्वार खोल दिया । इतना ही नहीं बल्कि हरिकेशी जैसे एक रूपता का प्रादर्श उपस्थित किया। इसी तपस्वी आध्यात्मिक चाण्डाल को छुआछूत में साम्यवाद ने स्त्रियों की पुनः सन्मान पूर्ण सामाजिक भानावशिख डूबे हुए जात्यभिमानी ब्राह्मणों के धर्म प्रतिष्ठा की। भगवान के साम्य सिद्धांत ने जाति वीरों में भेजकर गाँधीजी के द्वारा समर्थित मन्दिर में भेद, लिंगभद, वर्गभेद और अमीर-गरीव के भेद को अस्पृश्य प्रवेश जैसे विचार के धर्म बोज बोने का निर्मूल किया और अपने धर्मशासन में गुणपूजा को समथेन भी महावीरनुयायी जैन परम्परा ने किया महत्त्व दिया । “गुणः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंग है। यज्ञयाज्ञादि में अनिवार्य मानी जाने वाली पशु न च वराः'' कालिदास की यह उक्ति भगवान महावीर यादि प्राणी हिंसा से केवल स्वयं पूर्णतया विरत के धर्मशासन में यथार्थ रूप से चरितार्थ होती है। रहते तो भी कोई महावीर या उनके अनुयायी त्यागी भगवान महावीर ने अपने संघ में नारी को भी पुरुष को हिंसामागी नहीं कहता । पर वे धर्म के ममें को के समान समाधिकार देकर स्त्रीस्वातन्त्र्य की प्रतिष्ठा पूर्णतया समझते थे इसीसे जयघोष जैसे वीर साधु की और उसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया । इसी यज्ञ के महान समारंभ पर विरोध व संकट की परवाह
Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com