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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
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इनके पश्चात् द्वितीय तीर्थंकर श्री अजीतनाथजी से लेकर इक्कीसवें तीर्थंकर अत्यन्त प्राचीन काल में हो गये हैं । जिनके विशेष विवरण कम सुलभ हैं । एतदर्थ कलिकाल सर्वज्ञ जैनाचार्य श्री मद् हेमचन्द्राचार्य राचत "श्री त्रिषष्ठी श्लाघ्य महापुरुष" ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये ।
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१६ वें श्री शांतिनाथजी, १७ वें श्री कुंथुनाथजी और १८ वें श्री अरहनाथजी अपने राज्य काल में चक्रवर्ती थे । श्वेताम्बर जैन मान्यतानुसार उन्नीस तीर्थंकर श्री मल्लिनाथजी स्त्री रूप में थे विश्व के किसी भी धर्म में स्त्री जाति को इस प्रकार धर्म संस्थापक रूप में महानता देकर समदृष्टि पूर्ण उदारता प्रकट नहीं की गई है जैसी कि जैन धर्म में सुलभ है। वीसवें तीर्थंकर श्री मुनि सुव्रत स्वामी के समय श्रीराम और सीता हुए ।
बाबसों तोर्थं कर श्रोश्र ८ नेमो (नेमीनाथ जी) ये कर्मयोगी श्री कृष्ण के पैतृक भाई थे ।
हुए ।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार सर भंडारकर ने भगवान नाथ को ऐतिहाक महा पुरुष स्वीकार किया है । नेमीनाथ देवकी पुत्र श्री कृष्ण के चचेरे भाई और यदुवंश के कुत्त दीपक थे । उन्होंने ठीक लग्न के मौके पर भोजनार्थ मांस के लिये एकत्र किये गये पशुओं की करुण-कन्दन सुनकर लग्न करने से मुग्ध मोहकर उन्हें अभयदान प्रदान करने का महान साहस कर, विश्व में अहिंसा धर्म का दुदुभीनाद किया । तेवीस तीर्थंकर भगवान पानाथ की ऐतिहासिकता को भी वर्तमान सभी इतिहासकर एवं विद्वान मानते है ।
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भगवान पार्श्वनाथ~
ऐतिहासिक विद्वानों ने इनका समय ईसा से पूर्व ८०० वर्ष माना है । विक्रम संवत् पूर्व ८२० से ७९० तक का आपका जीवनकाल है। महावीर स्वामी के निर्वाण से २५० वर्षे पूर्ण आपका निर्वाण काल है ।
भगवान् पानाथ अपने समय के युगप्रवर्त्तक महापुरुष थे। वह युग तापसों का युग था । हजारों तापस उ शारीरिक क्लेशों के द्वारा साधना क्रिया करते थे। कितने ही तापस वृक्षोंपर औंधे मुँह लटका करते थे। कितने ही चारों ओर अग्नि जला कर सूर्य की आतापना लेते थे । कई अपने आपको भूमि में दवा कर समाधि लेते थे। अग्नितापसों का उस समय बड़ा प्राबल्य था। शारीरिक कष्टों की अधिकता में ही उस समय धर्म समझा जाता था। जो साधक जितना अधिक देह को कष्ट देता था वह उतना ही अधिक महत्व पाता था। भोली भाली जनता इन विवेकशून्य क्रिया काण्डों में धर्म समझती थी, इस प्रकार उस समय देइइण्ड का खूब दौरदौरा था । भगवान पार्श्वनाथ ने धर्म के नामपर चलते हुए उस पाखण्ड के विरुद्ध प्रवल क्रान्ति की। उन्होंने स्पष्ट रूप से घात किया कि विवेक हीन क्रिया कारढों का कोई महत्व नहीं है । सत्य विवेक के बिग किया गया वारतम तपश्चरण भी किसी काम का नहीं है । हजार वर्ष पर्यन्त उग्र दे६दमन किया जाय परन्तु
का अभाव है तो वह व्यर्थ होता है । विवेक शूम्य क्रियाकाण्ड आत्मा को उन्नत बनाने के बजाय उसका अध: पतन करने वाला होता है । भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की यही सर्वोचम महानना है कि उन्होंने देहदमन की अपेक्षा श्रात्मसाधना पर विशेष जोर दिया।
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