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जैन श्रमण संघ का इतिहास
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हम तो उन संतन के हैं दास,
के लिए अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो जाता जिन्होंने मन मार लिया। है । जैन-साहित्य में मुनि जीवन सम्बन्धी आचारसन्त कबीर ने भी मुनि को प्रत्यक्ष भगवान रूप विचार का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। कहा है और कहा है कि मुनि की देह निराकार को ऐसा सूक्ष्म एवं नियम-बद्ध वर्णन अन्यत्र मिलना आरसी है, जिसमें जो चाहे वह अलख को अपनी असंभव है । यही कारण है कि आज के युग में जहाँ आँखों से देख सकता है।
दूसरे संप्रदाय के मुनियों का नैतिक पतन हो गया निराकार की आरसी, साधू ही की देह, है, किसी प्रकार का संयम ही नहीं रहा है, वहाँ जैन लख जो चाहे अलख को, इनही में लखि लेह। मुनि अब भी अपने संयम-पथ पर चल रहा है।
सिक्ख सम्प्रदाय के गुरु अर्जुन देव ने कहा है आज भी उसके संयम-जीवन की झाँकी के दृश्य कि मुनि की महिमा का कुछ अन्त ही नहीं है, आचारांग, सूत्र कृतांग एवं दशवकालिक आदि सत्रों सचमुच वह अनन्त है बेचारा वेद भी उसकी महिमा में देखे जा सकते हैं । हजारों वर्ष पुरानी परपरा को का क्या वर्णन कर सकता है।
निभाने में जितनी दृढ़ता जैन-मुनि दिखा रहे है, साधू की महिमा वेद न जाने, उसके लिए जैन-सत्रों का नियमबद्ध वर्णन ही
नेता सुनै तेता बखाने। धन्यवाद का पात्र है। साधू की सोभा का नहिं अन्त,
आगम-साहित्य में जैन-मुनि की नियमोपनियम साधू की सोभा सदा बे-अन्त। सम्बन्धी जीवनचर्या का अतीव विराट एवं तलस्पर्शी । आनन्दकन्द व्रजचन्द्र श्री कृष्णचन्द्र ने भागवत वर्णन है । विशेष जिज्ञासुओं को उसी आगम-साहित्य में कहा है-सन्त ही मनुष्यों के लिए देवता हैं । वे से अपना पवित्र सम्पर्क स्थापित करना चाहिए । यहाँ ही उनके परम बान्धव हैं। सन्त ही उनकी आत्मा हम संक्षेप में पाँच महाव्रतो१ का परिचय मात्र दे है। बल्कि यह भी कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी रहे हैं । आशा है, यह हमारा क्षुद्र उपकम भी पाठकों कि सन्त मेरे ही स्वरूप है, अर्थात भगवत्स्वरूप हैं। की ज्ञान वृद्धि एवं सच्चरित्रता में सहायक हो देवता बान्धवाः सन्तः,
सकेगा। सन्त आत्माअहमेव च ।
अहिंसा महाव्रत -भाग० ११ । २६ ॥३४ । मन, वाणी एवं शरीर से काम, क्रोध, लाभ, जैन-धर्म में साधू का पद बड़ा ही महत्वपूर्ण है।
१-आचरितानि महभिर, आध्यात्मिकविकास क्रम में उसका स्थान छठा गुण
___ यच्च महान्तं प्रसाधयन्त्यर्थम् । स्थान है, और यहाँ से यदि निरन्तर ऊर्ध्वमुखी स्वयमपि महान्ति यस्मान विकास करता रहे तो अन्त में वह चौदहवे गुणस्थान
महाव्रतानीत्यतस्तानि ॥ की भूमिका पर पहुँच जाता है और फिर सदा काल
-आचार्य शुभचन्द्र
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