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श्रमण-धर्म
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दूसरों से करवाता है, और न चोरी का अनुमोदन ही करता है। और तो क्या, वह दाँत कुरेदने के लिये तिनका भी बिना आज्ञा ग्रहण नहीं कर सकता है । यदि साधु कहीं जंगल में हो, वहाँ तृण, कंकर, पत्थर अथवा वृक्ष के नीचे छाया में बैठने और कहीं शौच जाने की आवश्यकता हो तो शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उसे इन्द्रदेव की ही आज्ञा लेनी होती है। अभिप्राय यह है कि बिना आज्ञा के कोई भी वस्तु न प्रहण की जा सकती हैं और न उसका क्षणिक उपयोग ही किया जा सकता है । पाठक इसके लिए अत्युक्ति का भ्रम करते होंगे। परन्तु साधक को इस रूप में व्रत पालन के लिए सतत जागृत रहने की स्फूर्ति मिलती है । व्रतपालन के क्षेत्र में तनिक सा शैथिल्य (ढील) किसी भी भारी अनर्थ का कारण बन सकता है। आप लोगों ने देखा होगा कि तम्बू की प्रत्येक रस्सी खूंटे से कर बॉधी जाती है। किसी एक के भी थोड़ी सो ढीली रह जाने से जाने की सम्भावना बनी रहती है ।
तम्बू
में पानी आ
अस्तु, अचौर्य व्रत को रक्षा के लिए साधु को बार-बार आज्ञा ग्रहण करने का अभ्यास रखना चाहिए । गृहस्थ से जो भी चीज ले, आज्ञा से ले । जितने काल के लिए ले, उतनी देर ही रक्खे, अधिक नहीं । गृहस्थ आज्ञा भी देने को तैयार हो, परन्तु वस्तु यदि साधु के ग्रहण करने के योग्य न हो तो न ले। क्योंकि ऐसी वस्तु लेने से देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान की चोरी होती है। गृहस्थ थाज्ञा देने वाला हो, वस्तु भी शुद्ध हो, परन्तु गुरुदेव की आज्ञा न ही तो फिर भो प्रहण न करे। क्योंकि शास्त्रानुसार यह गुरु अदन हैं, श्रथात् गुरु की है।
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एक प्राचार्य तीसरे अचौर्य महात्रत के ५४ भंगों का निरूपण करते हैं । अल्प = थोड़ी वस्तु, चहु = अधिक वस्तु, अणु = छोटी वस्तु, स्थूल वस्तु, सचित्त = शिष्य आदि, अचित्त = वस्त्र पात्र बादि उक्त छः प्रकार की वस्तुओं की न स्वयं मन से चोरी करे, न मन से चोरी कराए, न मन से अनुमोदन करे। ये मन के १८ भंग हुए। इसी प्रकार वचन के १८, और शरीर के १८, सब मिलाकर ५४ भंग होते हैं। ौर्य महात्रत के साधक को उक्त सब भंगों का दृढ़ता से पालन करना होता है ।
ब्रहृमचर्य महात
ब्रह्मचर्य अपने आप में एक बहुत बड़ी आध्यास्मिक शक्ति है । शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक आदि सभी ब्रह्मचर्य पर निर्भर है । ब्रह्मचर्य वह आध्यात्मिक स्वाथ्य है, जिसके द्वारा मानव-समाज पूर्ण सुख और शान्ति को प्राप्त होता है ।
ब्रह्मचय की महता के सम्बन्ध में भगवान महावीर कहते हैं कि देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी दैवी शक्तियाँ ब्रह्मचारी के चरणों में प्रणाम करती हैं, क्योंकि ब्रह्मचर्य की साधना बड़ी ही कठोर साधना है । जो ब्रह्मचर्य की साधना करते हैं, वस्तुतः वे एक बहुत बड़ा दुष्कर कार्य करते हैं -
देवदारणव-गंध
जक्ख रक्खस- किन्नरा |
भयारिं नमसति,
दुक्करं जे करेंति ते ।।
--- उत्तराध्ययन सूत्र
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