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32 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
ऋषभ से महावीर तक जैन धर्म के लिए अनेक नाम प्रयुक्त होते रहे हैं। प्रारंभ में उसका नाम श्रमण धर्म था, फिर आर्हत धर्म हुआ। महावीर के युग में उसे निग्रंथ धर्म कहा जाता था। बौद्ध साहित्य में भी महावीर के लिए अनेक स्थानों पर निग्गंठनाथ शब्द प्रयुक्त हुआ है।
जैन शब्द की अर्वाचीनता के बावजूद इस परम्परा की प्राचीनता इसके आगमों से सहज ही सिद्ध हो जाती है।
जैन आगमों में जहाँ भी अनगार धर्म स्वीकार करने का कथानक मिलता है, वहाँ कहा गया है, कि वह सामायिक आदि द्वादशांग पढ़ता है अथवा चतुर्दश पूर्व पढ़ता है।
शास्त्रों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है, कि आचारांग आदि 12 अंगों की रचना महावीर के अनुगामी गणधरों ने की।"
समस्त जैन परम्परा की मान्यतानुसार तीर्थंकर भगवान अपनी देशना में जो अर्थ अभिव्यक्त करते हैं, उनको उनके प्रमुख शिष्य गणधर शासन के हितार्थ अपनी शैली में सूत्रबद्ध करते हैं। वे ही बारह अंग प्रत्येक तीर्थंकर के शासन काल में द्वादशांगीसूत्र रुप में प्रचलित एवं मान्य होते हैं।" द्वादशांगी का गणिपिटक के नाम से भी उल्लेख किया गया है। सूत्र गणधर कथित या प्रत्येक बुद्ध कथित होते हैं। वैसे श्रुतकेवली कथित और अभिन्न दशपूर्वी कथित भी होते हैं।
सभी तीर्थंकरों के धर्मशासन में तीर्थ स्थापना के काल में ही गणधरों द्वारा द्वादशांगी की नये सिरे से रचना की जाती है, तथापि उन सब तीर्थंकरों के उपदेशों में जीवादि मूल भावों की समानता एवं एकरूपता रहती है, क्योंकि अर्थरूप में जैनागमों को अनादि अनन्त अर्थात् शाश्वत माना गया है। जैसा कि नन्दीसूत्र के 58वें सूत्र में तथा समवायांग सूत्र के 185 वें सूत्र में कहा गया है। तथापि समय समय पर अंग शास्त्रों का विच्छेद होने और प्रत्येक तीर्थंकर काल में नवीन रचना के कारण उन्हें सादि और सपर्यवसित भी माना गया है।35
इस प्रकार द्वादशांगी के शाश्वत और अशाश्वत दोनों ही रूप शास्त्रों में प्रतिपादित किए गए हैं। इस मान्यता के अनुसार प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर द्वारा चतुर्विध तीर्थ की स्थापना के पश्चात् जो उपदेश इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों को दिया गया, उसे ही आर्य सुधर्मा आदि ने द्वादशांगी के रूप में सूत्रबद्ध किया, जो आचारांगादि रूप में हमारे समक्ष वर्तमान में उपलब्ध है।
वर्तमान में उपलब्ध द्वादशांगी महावीर भाषित है। लेकिन चतुर्दश पूर्व का जो आगम रूप में उल्लेख मिलता है, वह पूर्व के तीर्थंकरों द्वारा भाषित है। यह मुख्य रूप से पार्श्वनाथ भाषित ही है, जो महावीर से 250 वर्ष पूर्व ही हुए थे। भगवती सूत्र में