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30 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
आङ्गिरसो न पितरो नवम्वा अथर्वाणोभृगवः सोम्यासः। तेषां वयं सुमतो यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्यामा।" ऊँ स्वस्ति नो इन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्तिनः पूषा विश्वदेवाः। स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो वृहस्पति र्दधातु॥
यह तीसरा शोक सामवेद में भी अन्तिम श्रोक के रूप में उल्लिखित है। आज भी वैदिक स्तुति में सर्वाधिक प्रचलित है।
यजुर्वेद के 19 अध्याय में भगवान महावीर की उपासना का भी कथन किया गया है
___“आतिथ्यरूपं मासरम् महावीरस्य नग्नहुः ।
रुपमुपसदामेतस्त्रिस्त्रो रात्री सुरासुता॥""" वैदिक दर्शन के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में भी जैन संस्कृति के पहले से विद्यमान होने के सर्वाधिक प्रमाण मिलते हैं। ऋग्वेद को अन्य देवताओं के साथ भगवान ऋषभदेव की स्तुति का ग्रंथ कह दें, तो अतिशयोक्ति न होगी। ऋग्वेद में 144 बार वृषभो नाम का उल्लेख हुआ है। किन्तु टीकाकारों ने साम्प्रदायिकता के कारण अर्थ में परिवर्तन कर दिया है, जिसके कारण कई स्थल विवादास्पद हो गए हैं। जब हम उन ऋचाओं का साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह को छोड़कर अध्ययन करते हैं, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में ही कहा गया है। यथा -
"मरवस्य ते तीवषस्य प्रजूतिमियभि वाचमृताय भूषन्। इन्द्र क्षितिमामास मानुषीणां विशां दैवी नामुत पूर्वयामा॥"
अर्थात् हे आत्मद्रष्टा प्रभो! परम सुख पाने के लिए मैं तेरी शरण में आना चाहता हूँ, क्योंकि तेरा उपदेश और तेरी वाणी शक्तिशाली है- उनको मैं अवधारण करता हूँ। हे प्रभो! सभी मनुष्यों और देवों में पहले पूर्वयामा हो।
वैदिक युग में जैन धर्म का सर्वाधिक विश्रत नाम आर्हत धर्म था। जो अर्हत के उपासक थे वे आर्हत कहलाते थे। वे वेद और ब्राह्मणों को नहीं मानते थे। ऋग्वेद में वेद और ब्रह्म के उपासकों को बार्हत कहा गया है। वे वैदिक यज्ञ-याग को ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे। आर्हत लोक यज्ञों में विश्वास न करके कर्म-बंध और कर्म-निर्जरा को मानते थे। ऋग्वेद में अर्हन को विश्व की रक्षा करने वाला सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। अर्हत् का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है। आर्हत शब्द की प्रधानता भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थकाल तक चलती रही। ऋग्वेद में ऋषभदेव के लिए केशी शब्द का भी प्रयोग हुआ है। यथा -
"केयग्नि केशी विषं केशी विभर्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वदृशे केशीदं ज्योतिरूच्यते॥"
ऋग्वेद - 10/11/136/1