Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व . [३१ (८) जीव और सोने की तुलना-नित्य-अनित्य की दृष्टि से :
जैसे सोने के मुकुट, कुण्डल आदि अनेक रूप बनते हैं तब भी वह सोना . ही रहता है, केवल नाम और रूप में अन्तर पड़ता है। ठीक उसी प्रकार चारों गतियों में भ्रमण करते हुए जीव की पर्याएं बदलती है-रूप और नाम बदलते है-जीव द्रव्य बना का बना रहता है।
(६) जीव की कर्मकार से तुलना कतृत्व और भोक्तृत्व की दृष्टि से :
जैसे कर्मकार कार्य करता है और उसका फल भोगता है, वैसे ही जीव स्वयं कर्म करता है और उसका फल भोगता है।
(१०) जीव और सूर्य की-भवानुयायित्व की दृष्टि से तुलना :
जैसे दिन में सूर्य यहाँ प्रकाश करता है, तब दीखता है और रात को दूसरे क्षेत्र में चला जाता है-प्रकाश करता है, तब दीखता नहीं वैसे ही वर्तमान शरीर में रहता हुआ जीव उसे प्रकाशित करता है और उसे छोड़कर दूसरे शरीर में जा उसे प्रकाशित करने लग जाता है ।
(११) जीव का शान-गुण से ग्रहण :
जैसे कमल, चन्दन श्रादि की सुगन्ध का रूप नहीं दीखता, फिर भी वह घाण के द्वारा ग्रहण होती है। वैसे ही जीव के नहीं दीखने पर भी उसका शान-गुण के द्वारा ग्रहण होता है।
भंमा, मृदङ्ग आदि के शब्द सुने जाते हैं , किन्तु उनका रूप नहीं दीखता, वैसे ही जीव नहीं दीखता तब भी उसका शान-गुण के द्वारा ग्रहण होता है।
(१२) जीव का चेप्टा-विशेष द्वारा ग्रहण :
जैसे किसी व्यक्ति के शरीर में पिशाच घुस जाता है, तब यद्यपि वह नहीं दीखता फिर भी आकार और चेष्टाओं द्वारा जान लिया जाता है कि यह पुरुष पिशाच से अभिभूत है, वैसे ही शरीर के अन्दर रहा हुआ जीव हास्य, नाच, सुख-दुःख, बोलना चलना आदि-श्रादि विविध चेष्टाओं द्वारा जाना जाता है।
(१३) जीव के कर्म का परिणमन :जैसे खाया दुमा भोजन अपने आप सात धातु के रूप में परिणत होता है,