Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्वं
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कुछ भी नहीं होते। वे आत्म-रूप हो जाते हैं। अतएव उन्हें सत्-चित्-श्रानन्द कहा जाता है। उनका निवास ऊंचे लोक के चरम भाग में होता है। वे मुक्त होते ही वहाँ पहुँच जाते हैं। आत्मा का स्वभाव ऊपर जाने का है । बन्धन के कारण ही वह तिरछा या नीचे जाता है। ऊपर जाने के बाद वह फिर कभी
वहाँ गति-तत्त्व
नीचे नहीं आता । वहाँ से अलोक में भी नहीं जा सकता । ( धर्मास्तिकाय ) का अभाव है। दूसरी श्रेणी की जो संसारी श्रात्माएँ हैं, बे कर्म बद्ध होने के कारण अनेक योनियों में परिभ्रमण करती है, कर्म करती हैं और उनका फल भोगती हैं। ये मुक्त श्रात्मानों से अनन्तानन्त गुनी होती हैं । संसारी आत्माएँ शरीर से बन्धी हुई हैं। उनका स्वतन्त्र परिणाम नहीं है ।
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उनमें संकोच और विस्तार की शक्ति होती है । जो श्रात्मा हाथी के शरीर में रहती है, वह कुंथु के शरीर में भी रह सकती है। अतएव वे 'स्वदेह परिमाण है। मुक्त श्रात्माओं का परिमाण ( स्थान - अवगाहन ) भी पूर्व-शरीर के अनुपात से होता है। जिस शरीर से आत्माएं मुक्त होती है, उसके 3 भाग जो पोला है उसके सिवाय भाग में वे रहती हैं- अन्तिम मनुष्य शरीर की ऊँचाई में से एक तृतीयांश छोड़कर दो तृतीयांश जितने क्षेत्र में उनका श्रवगाहन होता है। मुक्त आत्माओं का अस्तित्व पृथक्-पृथक् होता है तथापि उनके स्वरूप में पूर्ण समता होती है । संसारी जीवों में भी स्वरूप की दृष्टि से ऐक्य होता है किन्तु वह कर्म से दबा रहता है और कर्मकृत भिन्नता से वे विविध वर्गों में बंट जाते हैं, जैसे पृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक जीव, तेजस्कायिक जीव, वायुकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीव, जसकायिक जीव । जीवों के ये } छह निकाय, शारीरिक परमाणुत्रों की भिन्नता के अनुसार रचे गए हैं। सब जीवों के शरीर एक से नहीं होते । किन्हीं जीवों का शरीर पृथ्वी होता है तो किन्हीं का पानी । इस प्रकार पृथक-पृथक परमाणुत्रों के शरीर बनते हैं। इनमें पहले पांच निकाय 'स्थावर' कहलाते हैं । स जीव इधर-उधर घूमते हैं, शब्द करते है, चलते-फिरते हैं, संकुचित होते हैं, फैल जाते हैं, इसलिए उनकी चेतना में कोई सन्देह नहीं होता । स्थावर जीवों में ये बातें नहीं होती अतः उनकी चेतनता के विषय में सम्देह होना कोई ब्राश्चर्य की बात नहीं।