Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व "मोहन घर में नहीं है"-यह संयोग प्रतिषेध है। इसका अर्थ यह नहीं कि मोहन है ही नहीं किन्तु-"बह घर में नहीं है"-इस 'गृह-संयोग' का प्रतिषेध है।
"खरगोश के सींग नहीं होते"-यह समवाय-प्रतिषेध है । खरगोश भी होता है और सींग भी, इनका प्रतिषेध नहीं है। यहाँ केवल 'खरगोश के सींग'-इम समवाय का प्रतिषेध है।
'दूसरा चांद नहीं है-इसमें चन्द्र के सर्वथा अभाव का प्रतिपादन नहीं, किन्तु उसके सामान्य मात्र का निषेध है।
'मोती घड़े जितने बड़े नहीं हैं। इसमें मुक्ता का अभाव नहीं किन्तु 'उस घड़े जितने बड़े-यह जो विशेषण है, उसका प्रतिषेध है ।
'आत्मा नहीं है। इसमें आत्मा का निषेध नहीं होता। उमका किमीके साथ होने वाले संयोगमात्र का निषेध होता है । आत्मा क्या है ?
आत्मा चेतनामय अरूपी सत्ता है । उपयोग (चेतना की क्रिया) उमका लक्षण है । शान-दर्शन, सुख-दुःख आदि द्वारा वह व्यक्त होता है । वह विशाता है। वह शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं है । वह लम्बा नहीं है, छोटा नहीं है, टेढ़ा नहीं है, गोल नहीं है, चौकोना नही है, मंडलाकार नहीं है। वह हल्का नहीं है, भारी नहीं है, स्त्री और पुरुष नहीं है । वह ज्ञानमय असंख्य प्रदेशों का पिण्ड है। कल्पना से उसका माप किया जाए तो वह असंख्य परमाणु जितना है । इमलिए वह ज्ञानमय असंख्य प्रदेशों का पिण्ड कहलाता है। वह अरूप है, इसलिए देखा नहीं जाता। उसका चेतना गुण हमें मिलता है। गुण से गुणी का ग्रहण होता है। इससे उसका अस्तित्व हम जान जाते हैं। वह एकान्ततः वाणी द्वारा प्रतिपाथ"
और तर्क द्वारा गम्य नहीं है । ऐसी आत्माए अनन्त हैं। साधारणतया ये दो भागों में विमक्त है-बदामा और मुक्त आत्मा। कर्म-बन्धन टूटने से जिनका आत्मीय स्वरूप प्रकट हो जाता है, वे मुक्त भालाएं होती है। ये भी अनन्त हैं। उनके शरीर एवं शरीर जन्य क्रिया और जन्म-मृत्यु श्रादि