Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तस्वं । tan: (६) जड़ और चेतन में अत्यन्ताभाव है अतः त्रिकाल में भी न वो जड़ कभी चेतन बन सकता है और न जड़ से चेतन उपज सकता है।
(७) जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है। वह उसी रूप में परिणत होता है। जड़-उपादान कभी चेतन के रूप में परिणत नहीं हो सकता।
(८) जिस वस्तु का विरोधी तत्त्व न मिले, उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। यदि चेतन नामक कोई सत्ता नहीं होती तो 'न चेतन-अचेतन'-इस अचेतन सत्ता का नामकरण और बोध नहीं होता।
(६) आत्मा नहीं है इसका 'यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं, इसके सिवाय कोई प्रमाण नहीं मिलता। श्रात्मा 'इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं,' इसका समाधान पहले किया जा चुका है।
ज्ञेय वस्तु, इन्द्रिय और आत्मा-ये तीनों भिन्न है। आत्मा प्राहक [शाता है। इन्द्रियां ग्रहण के साधन हैं और वस्तु समूह ग्राह्य (शेय) है। लोहार संडासी से लोह-पिंड को पकड़ता है-वहाँ लोह-पिंड (ग्राह्य), संडासी [ ग्रहण का साधन ] और लोहाकार [ग्राहक ] ये तीनों पृथक-पृथक हैं। लोहार न हो तो संडासी लोह-पिंड को नहीं पकड़ सकती। श्रात्मा के चले जाने पर इन्द्रियां अपने विषय का ग्रहण नहीं कर सकतीं । ____ जो यह सोचता है कि शरीर में 'मैं' नहीं हूँ, वही जीव है। चेतना के विना यह संशय किसे हो । 'यह है या नहीं' ऐसी ईहा या विकल्प जीव का ही लक्षण है। सामने जो लम्बा-चौड़ा पदार्थ दीख रहा है, "वह खम्भा है या
आदमी” यह प्रश्न सचेतन व्यक्ति के ही मन में उठ सकता है । ___ मंसार में जितने पदार्थ है, वे सब एक रूप नहीं होते। कोई इन्द्रियग्राह्य होता है, कोई नहीं भी। जीव अनिन्द्रिय गुण है। इसलिए चर्म चक्षु से वह नहीं दीखता । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह नहीं है।
जीव-न हो तो उसका निषेध कैसे बने ! असत् का कभी निषेध नहीं होता। जिसका निषेध होता है, वह अवश्य होता है। निषेध के चार प्रकार है :
(१) संयोग . . (३) सामान्य (२) समवाय (४) विशेष