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इस प्रकार भगवान् की दिव्य वाणी के रूप में प्रकटित चार तत्वों वाले समस्त परमार्थशास्त्र (चिकित्साशास्त्र) को साक्षात् 'गणधर परमेष्ठी' ने प्राप्त किया। इसके बाद गणधर द्वारा निरूपित इस शास्त्र को निर्मल बुद्धि वाले चार 'मुनियों' ने प्राप्त किया। इस प्रकार तीर्थंकर ऋषभदेव के बाद यह शास्त्र तीर्थंकर 'महावीर' तक चलता रहा (सिद्धमार्ग से प्रचलित रहा)। यह समस्त शास्त्र अत्यंत विस्तृत, दोषहीन, गभीर, अर्थयुक्त, स्वयंभू (तीर्थंकर की वाणी से उद्भूत होने के कारण , सनातन (परम्परागत प्रचलित) है। इसे 'श्रुत के वलियों' के मुख से श्रुत अर्थात् आगम-अंगों को धारण करने वाले मुनियों ने साक्षात रूप से सुना है । इस अवतरण-परम्परा से स्पष्ट होता है कि प्राणावाय (आयुर्वेद । का ज्ञान तीर्थंकरों ने प्रतिपादित किया है । अतः इसका आगम में समावेश है। इनसे गणधरों ने, उनसे प्रतिगणधरों ने, उनसे श्रुत के वली और उनसे-बाद में होने वाले मुनियों ने क्रमशः सुनकर प्राप्त किया । (यह श्रुतज्ञान है ।
इसी से, उग्रादित्याचार्य 'कल्याणकारक' में प्रतिज्ञा करता है कि उसने 'तीर्थंकरों की वाणी रूप सागर की तरंग से उठी हुई बूदों के समान, समस्त लोक-हित की कामना से मैंने यह 'कल्याणकारक' ग्रंथ बनाया है'।
जैनों द्वारा प्रतिपादित और मान्य 'प्राणावायावतरण' (आयुर्वेदावतरण) की यह परम्परा आयुर्वेदीय चरकसंहिता, सुश्रुत संहिता आदि संहिता-ग्रन्थों में प्राप्त परम्पराओं से सर्वथा भिन्न और नवीन है।
___ 'कल्याणकारक' में प्राणावाय सम्बन्धी पूर्वाचार्यो द्वारा प्रणीत अनेक ग्रन्थों का नामोल्लेख हुआ है । उस में लिखा है-'पूज्यपाद' ने शालाक्य पर, 'पात्रस्वामी' ने शल्यतंत्र, 'सिद्धसेन ने विष और उग्र ग्रह-शमनविधिका, 'दशरथ गुरु' ने कायचिकित्सा पर, 'मेघनाद' ने बाल रोगों पर और 'सिंहनाद ने वाजीकरण और रसायन पर वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी। इसी ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि-'समन्तभद्र' ने विस्तारपूर्वक आयुर्वेद के आठ अंगों पर ग्रन्थ की रचना की थी (जिसप्रकार वाग्भट ने 'अष्टांगसंग्रह' नामक ग्रन्थ लिखा था) । समन्तभद्र के अष्टांगविवेचनपूर्ण ग्रन्थ के आधार
1 दिव्यध्वनिप्रकटितं परमार्थजातं साक्षात्तथा गणधरोऽधिजगे समस्तम् ।
पश्चात् गणाधिपनिरूपितवाक्प्रपंचमष्टार्धनिर्मलधियो मुनयोऽधिजग्मुः ।। एवं जिनांतरनिबंधनसिद्धमार्गा दायातमायतमनाकुलमर्थगाढम् । स्वायंभुवं सकलमेव सनातनं तत् साक्षाच्छु तं श्रुतदलः श्रुतकेवलिभ्यः ।।"
क. 119-10) 2 प्रोद्यज्जिनप्रवचनामृतसागरान्तः प्रोद्यत्तरंगनिसृताल्पसुशीकरं वा।
क्यामहे सकललोकाहितकधाम कल्याणकारकमिति प्रथितार्थयुक्तम् । 8 क. का. 20/851
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