Book Title: Jain Aayurved Ka Itihas
Author(s): Rajendraprakash Bhatnagar
Publisher: Surya Prakashan Samsthan

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Page 138
________________ यह मुरादशाह औरंगजेब का भाई था, जो 1661 ई. में मारा गया था । शीघ्र ही यह ग्रन्थ लोकप्रिय हो गया था । इसकी लोकप्रियता इस तथ्य से ज्ञात होती है कि इस ग्रंथ की रचना के तीन वर्ष बाद अर्थात् सं. 1729 मेघभट्ट नामक विद्वान् ने इस पर संस्कृत टीका लिखी थी, इसको पुष्पिका में लिखा है 'वि. सं. 1729 वर्षे भाद्रपदमासे सिते पक्षे भट्टमेघविरचितसंस्कृत टीकाटिप्पणीसहितः संपूर्णः ।' यह टीकाकार शैव था । इसके प्रपितामह का नाम नागरभट्ट, पितामह का नाम कृष्णभट्ट तथा पिता का नाम नीलकण्ठ दिया है । मेघ की संस्कृत टीका के अतिरिक्त इस पर हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती में अनेक स्तबक और विवेचन लिखे गये हैं । वन्ध्या कल्प चौपाई - नागरीप्रचारिणी सभा के खोज विवरण पृ. 33 पर इनकी इस रचना का उल्लेख है । इसके अन्तिम भाग में 'कहिं कवि हस्ति हरिनों दास" लिखा है । अतः संभवत: यह किसी अन्य की रचना प्रतीत होती है । 2 'हस्तिरुचि गणि' के अन्य ग्रन्थ भी मिलते हैं । मो.द. देसाई ने 'जैन साहित्यतो इतिहास' (पृ. 664 पर इनका ग्रन्थप्रणयनकाल सं. 1717 से 1739 माना है । इन्होंने 'षडावश्यक' पर वि. सं. 1697 में व्याख्या लिखी है । I मथेन राखेचा (1671 ई.) 'मथेन' या 'मथेरण' शब्द गृहस्थी बने हुए जैन यति के लिए प्रयुक्त होता है । 'मथेन राखेचा' का विशेष वृत प्राप्त नहीं होता। इसने बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह (1668 से 1699 ई ) के आदेश से औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में संवत् 1728 जेठ सुदी 7 को पालकाप्य विरचित 'हस्त्यायुर्वेद' या 'गजशास्त्र' पर 'अमर-सुबोधिनी' नामक भाषाटीका लिखी थी । अन्तिम पुष्पिका में लिखा है ' इति पालकाप्य रिषि विरचितायां तद्भाषार्थं नाम अमरसुबोधिनी नामा भाषार्थ प्रकाशिकायां समाप्ता शुभं भवतु । सं. 1728 वर्षे जेठ सुदी 7 दिने महाराजाधिराज महाराजा श्री 'अनूपसिंह जी' पुस्तक लिखापितः । मथेन राखेचा लिखितम् । श्री 'औरंगाबाद' मध्ये ' इसकी हस्तलिखित प्रति अनूपसंस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में सुरक्षित है । इसमें हाथियों के प्रकार, उनके रोगों व चिकित्सा का विवरण दिया गया है | 1 जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 5, पृ. 230 पर पादटिप्परणी । [128]

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