Book Title: Jain Aayurved Ka Itihas
Author(s): Rajendraprakash Bhatnagar
Publisher: Surya Prakashan Samsthan

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Page 180
________________ होता है । जब तक कर्मयोग शेष होता है, तब तक जन्म - मृत्यु - क्रम चलता रहता है । सारा जगत् नाशवान् है । शास्त्र में 101 मृत्युएं कही हैं । इनमें से केवल एक काल-मृत्यु है, शेष सब निमित्तज हैं । औषधियों में अकाल मृत्यु टल सकती है, परन्तु काल-मृत्यु की कोई चिकित्सा नहीं है रोगों के तीन भेद हैं - दोषज, कर्मज और दोषकर्मज । ग्रंथांत में यति- परम्परानुसार वैराग्य का उपदेश है । संसार की सब आधिव्याधियां शरीर में ही होती हैं। रोग, जरा, मरण, शोक आदि शरीर के ही साथ हैं । 'शरीर हड्डियों का ढांचा है, मांस की मिट्टी लगाकर चमड़ी का परदा लगा दिया है । इस पंच तत्व के देहरे में केवल आत्मा ज्योतिःस्वरूप है, जो इस देहरे को टिकाए हुए है । जब तक इसमें चाह या तृष्णा रहती है, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता है । चाह मिटने पर आत्मा निर्लेप होकर इस बंधन से मुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त होती है ।' इस ग्रन्थ पर लाहोर के 'पंजाब संस्कृत पुस्तकालय' (मोतीलाल बनारसीदास संस्था) के अध्यक्ष लाला सुन्दरलाल जैन और बम्बई संस्कृत प्रेस के अध्यक्ष लाला शांतिलाल जैन के आग्रह पर, कविराज नरेन्द्रनाथ शास्त्री ने हिन्दी में 'तरङ्ग भाषा भाष्य' लिखकर 1947 में लाहोर से ही प्रकाशित कराया था । इस भाष्य में मूल दोहे - चोपाईयों का हिन्दी रूपान्तर करने के साथ नवीन रोगों का नैदानिक विवरण भी सम्मिलित कर दिया गया है । इससे इसकी उपयोगिता बढ़ गयी है । ( 2 ) लोलिम्बराज - भाषा - लोलिम्बराज कृत 'वैद्यजीवन' एक काव्यमय वैद्यक - लघु यह शृंगारात्मक शैली में लोलिम्बराज इसी ग्रन्थ का यति गंगाराम ने हिन्दी 1872 (1815 ई.) है | कृति है । इसकी सर्वत्र अत्यन्त प्रसिद्धि है । ने अपनी पत्नी को संबोधित कर लिखा था । पद्यानुवाद किया था । इसका रचनाकाल सं. (3) सूरतप्रकाश - यति गंगाराम ने अपने गुरु सूरतराम के नाम से इसका नामकरण किया है । इसका अन्य नाम 'भावदीपक' है । इसका रचनाकाल सं. 1883 (1826 ई है। इसमें विभिन्न रोगों की चिकित्सा के लिए औषध योगों का उल्लेख है। यह हिन्दी पद्यों में लिखा हुआ है । (4) भावनिदान - यह भी निदान संबंधी ग्रन्थ है । इसका रचनाकाल सं. 1888 ( 1831 ई.) दिया है | ये अन्तिम तीनों ग्रन्थ हस्तलिखित रूप में प्राप्त है । इनका उल्लेख 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में प्रकाशित 'दी सर्च फॉर हिन्दी मैन्युस्क्रिप्ट इन दि पंजाब' (1922-24 ) में पृ. 30 पर हुआ है । यह हिन्दी में पद्यबद्ध है । ज्ञानसार (1744-1842 ई.) यह बीकानेर के रहने वाले थे । इनका जन्म सं. 1801 ( 1744 ई.) में [170]

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