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ग्रंथारम्भ में तीर्थंकर चंद्रप्रभ और सरस्वती की स्तुति के साथ माधवचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती, अभयचंद्र और कनकचंद्र पण्डितदेव की स्तुति की गई है । माधवचंद्र त्रिलोकसार के टीकाकार और अभयचंद्र गोम्मटसार की नंदप्रबोधिकाटीका के कर्ता थे । कीर्तिवर्मा (1125 ई.) के 'गोवैद्य' को छोड़कर सोमनाथकृत कन्नड़ कल्याणकारक ही सर्वाधिक प्राचीन है । यह ग्रन्थ प्राच्य संशोधनालय, मानस गंगोत्री, मैसूर से प्रकाशित हो चुका है ।
अमृतनंदि ( 13वीं शती)
यह दक्षिण के दिगम्बर आचार्य थे । इन्होंने जैन दृष्टि से वनस्पति-नामों के पारिभाषिक अर्थों को बताने के लिए 'निघण्टु - कोष' की रचना की थी । यह कोष अत्यन्त विस्तृत है | इसमें 22000 शब्द हैं । 1 यह प्रारंभ से सकार ( स. सा. ) तक ही प्राप्त है, शेष भाग संभवत: ग्रंथकार द्वारा पूर्ण नहीं किया जा सका हो । इसमें वनस्पतियों के नाम जैन परिभाषाओं के अनुसार सूचित किये गये हैं । जैसे— मुनिखर्जूरिका- - राजखजूर
अभव्यः
अहिंसा
अनंत
- हंसपादि
- वृश्चिकालि
—सुवर्ण
- पाठे की लता
वर्धमाना
वर्धमानः
वीतरागः
ऋषभ
ऋषभा
-आमलक
यह कोश अत्यंत महत्वपूर्ण है ।
वर्द्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री को इसकी हस्तप्रति बैंगलोर में वैद्य पं. यल्लप्पा के पास देखने को मिली थी। 2
1 कल्याणकारक, प्रस्तावना, 36-37 2 जनसाहित्य का वृ. इति. भाग
अमृतनन्दी कन्नड़ प्रांत के निवासी थे । इनका कन्नड़ में 'अलंकारसंग्रह' या 'अलंकारसार' नामक ग्रन्थ भी मिलता है । इसकी रचना मन्त्र राजा के आग्रह से इस संग्रहात्मक ग्रंथ के रूप में की गई थी । कवि ने मन्व का परिचय दिया है
'उद्दामफलदां गुर्वीमुदधिमेखलम् ।
'भक्तिभूमिपतिः शास्ति जिनपादाब्जषट्पदः ।। 3 ।। * तस्य पुत्रस्यागमहासमुद्र बिरुदांकित: । सोमसूर्यकुलोत्तंसमहितो 'मन्वभूपतिः' ||4|| स कदाचित् सभामध्ये काव्यालापकथान्तरे । अपृच्छदमृतानन्दमादरेण कवीश्वरम् ||5|| संचित्यैकत्र कथय सौकर्याय सतामिति । या तत्प्रार्थितेनेत्थममृतानन्दयोगिना ||
- मधुर मातुलुरंग
- श्वेतैरण्ड:
-आम्रः
g. 231, 117
[178]
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ॐ