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बीकानेर राज्य के अन्तर्गत जांगुल के पास जैमलेवास गांव में हुआ था । इनके पिता का नाम उदयचद सांड और माता का नाम जीवणदे था । इन्होंने सं. 1812 में बारह वर्ष की उम्र में खरतरगच्छ जिनलाभसूरि के शिष्य 'रत्न राजगणि' ( रायचंद्र ) के पास दीक्षा ली । यह 'बड़ खरतरगच्छ' नाम से प्रसिद्ध है ।
"बड़ खरतर जिनलाभ के शिष्य रत्नगणिराज',
ज्ञानसार मुनि मंदमति, आग्रह प्रेरण काज || (कामोद्दीपन, ग्रंथांत, पद्य 174 )
जिन लाभसूरि के गुरू जिनभक्तिसूरि थे
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"खरतरगच्छ' दिनमणि श्री जिनभक्ति सूरीस',
तास पटोवर 'जैनलाभना' शीश सुशीश,
'रत्न राजगणि' गणिमणि, तास चरण अरविन्द,
सेवं 'ज्ञानसार मुनि' कौनो अति मतिमंद | ( बासठ मार्गणा यंत्ररचना, 112) यह भट्टारक मुनि थे
" खरतर भट्टारक' गर्छ, रत्नराज गणि ́ सीस
आग्रहतै दोधक रचं, 'ग्यानसार' मन हींस' (निहालबावनी, गूढाबावनी, 54 )
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"भट्टारक खरतर गच्छे, श्री जिनलाभसूरिद,
'रत्नराजमुनि' भ्रमर पर सेवे पद मकरंद,
जसु चरण रजकण सभो, ज्ञानसार बुद्धिमंद, (जिनकुशलसूरि अष्टप्रकारी पूजा
पद्य 3-4 )
सं. 1849 से
इनका विहार बीकानेर, जैसलमेर और जयपुर राज्यों में हुआ । 1852 तक चार वर्ष इनका विहार पूरबदेश में हुआ । ये बहुत ज्ञानी, मस्तयोगी और कवि थे । इनका बीकानेर के राजा सूरतसिंह, जयपुर नरेश सवाई माधवसिंह प्रथम (1751-1767) और उनके पुत्र महाराजा प्रतापसिंह (1778-1803 ई.), जैसलमेर के रावल गजसिंह और प्रधान जोरावरसिंह पर इनका अच्छा प्रभाव था । इनको राज्य-सम्मान प्राप्त था । इनकी अनेक कृतियां मिलती हैं जो हिन्दी - राजस्थानी में है । ज्ञानसार को 'नारण बाबा' (नारायण बाबा ) भी कहते थे । इस नाम से उन्होने कुछ
ग्रन्थ भी लिखे हैं --
"नारण' धरी अरू कपा पहुर, रहे नहीं सो सुधर नर' (पूरबदेश वर्णन, 133 )
'हृदय उपजी रीझ, 'अट्ठारे अट्ठावन,
जेठ शुक्ल तिथि तीज, निरमी खरतर नारण, (संबोध अष्टोत्तरी, 108)
इनका स्वर्गवास सं. 1899 (1842 ई. में हुआ था। इनकी पादुका सं. 1902 की बीकानेर में मौजूद है । सदासुख, हरसुख आदि इनके अनेक शिष्य थे ।
कामविद्या पर इनका 'कामोद्दीपन ग्रन्थ' मिलता है । यह शृंगारप्रधान है । यह राजस्थानी हिन्दी में है । इसकी रचना जयपुर के महाराजा माधवसिंह के पुत्र
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