________________
कलहंसदेवी, दशमवर्ष में दूतीदेवी, एकादशवर्ष में बानलीदेवी, द्वादशवर्ष में बातलादेवी का प्रकोप होना बताया है। इनके साथ मास एवं वर्ष के अनुसार तत् तत् देवी-देवता की शांति हेतु चौराहों पर बलियों का विधान भी बताया है। इनमें जैनसिद्धांतानुसार मांस-मदिरा का समावेश नहीं है। इससे यति को ग्रहचिकित्सा, स्त्रीरोग, बालरोगों का गम्भीर ज्ञान होना सूचित होता है । रावणोक्त निम्न मंत्र माला धारण करने से और प्रतिदिन जप करने से सब ग्रह टल जाते हैं, बच्चा स्वस्थ-सुखी रहता है -
'ॐ चिट चिट मिल मिल फजरू देव्यै नमः। रावणाय स्वाहा ।' बच्चों के लिए औषधि की माला का विधान दिया है। बच्चों के लिए 'पुष्टिकारकयोग' दिया है - वंशलोचन, दालचीनी, इलायची, सतगिलोय और मिश्री का समभाग कपड़छान चूर्ण चटाने से बच्चा स्वस्थ, और हृष्टपुष्ट रहता है, रोगों से बचा रहता है।
ग्रन्थ में कहीं-कहीं यशवंत (जसवंत) को सम्बोधित कर विषय को बताने का भी उल्लेख है। (देखें, स्थावर विष के दस गुण बताने का प्रसंग)। विष प्रकरण के अंत में निर्विष मनुष्य के लक्षण बताये हैं, जो माधवनिदान में नहीं मिलते 'जिस व्यक्ति के सब दोष शांत हो गए हों, रसादिधातु स्वभावस्थ हों, भूख-प्यास ठीक लगते हों, मलमूत्र का उत्सर्ग ठीक से हो रहा हो, अंग अपने कार्य ठीक ठीक करें, वर्ण निखर गया हो, मन स्वस्थ हो, और उसको क्रियाएं (बोलचाल, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि) सम हों, बात्मा प्रसन्न हो-उसे निविष और स्वस्थ समझे। 25वें 'मिश्रक अध्याय में शारीर-वर्णन के बाद 'धरन-रोग' उरोगहरोग, 'पार्श्वशूल' का वर्णन भी दिया है। गंगयति ने उरोगहरोग' का निदान-सम्प्राप्ति व लक्षण 'हरिश्चन्द्र के मतानुसार लिखे हैं। इस प्रसंग में उन्होंने अपनी अनुभूत चिकित्सा भी बतायी है-पहले नीले थोथे को दूध में घोलकर पिलावें। इससे वमन होंगे। इससे रोगी ठीक हो जावेगा। फिर क्वाथ प्रयोग दिये है। इसके बाद पार्श्वशूल' का निदान और उसकी चिकित्सा दी है। 'पार्श्वशूल' में उपयोगी प्रयोग दिए हैं। शूलवाले स्थान से रक्तमोक्षण करावें, सींगी लगावें। एलुआ 1 माशा मात्रा में गोमूत्र में गरम करके पीवें। एलुआ और बारहसिंगा दोनों को गोमूत्र में घिसकर गरम कर छाती पर लेप करें। छाती पर अण्डे की जरदी मलें। ऊपर एरण्डपत्र बांधे। खाने के लिए बारहसींगे की भस्म 2 रत्ती शहद और अदरक के रस के साथ चटावें।
____ इस प्रकार यह निदान विषयक अत्यन्त उपयोगी रचना है। कुछ स्थलों पर यति 'गंगाराम' द्वारा दिये हुए अनूभूत प्रयोग भी द्रष्टव्य हैं।
ग्रन्थ के अन्त में जीवन-मृत्यु के विषय में बताया गया है। प्राणवायु नाभि से उठकर ऊपर नासिकाओं से बाहर निकलता है और आकाश से अमृत लेकर फिर हृदय और नाभि-मण्डल मे प्रवेश करता है। यही 'जीवन' है। शरीर, इन्द्रियां, मन और आत्मा के संयोग को जीवन कहते हैं । आत्मा और शरीर का मेल कर्म-बन्धन के अनुसार
(169)