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'सारंगधर' अति कठिन है, बाल न पावै भेद । ता कारण भाषा कहूं, उपजै ज्ञान उमेद ।।5।। पहिली गुरु मुख सांभली, भाव भेद परिज्ञान ।
ता पीछे भाषा करी, मेटन सकल अग्यांन ।।6। इसकी रचना भी पद्यमय है और कवित्त, दोहा, चौपाई, छंदों में विरचित है। अनुवाद होते हुए भी भाषा और विषय की स्पष्टता के संबंध में मौलिकता परिलक्षित होती है।
विविध रोगों की सुगम चिकित्सा बतायी गयी है और इसी से इसका नाम 'वैद्यविनोद' रखा गया है
'विविध चिकित्सा रोग की, करी सुगम हित आणि ।
'वैद्यविनोद' इण नांम धरि, यांमै कीयो बखाण ।।10।। ग्रंथांत में भी लिखा है
"रामचंद्र' अपणी मतिसार, 'वैद्यविनोद' कोनो सुखकार ।
पर उपगार कारण के लई, भाषा सुगम जो मह करिदई ।।68।।' इस ग्रंथ की रचना से पूर्व उसने 'रामविनोद' की रचना की थी, इसका उल्लेख ग्रंथकार ने 'वैद्यविनोद' के अन्त में किया है -
'पहिली कीनौ 'रामविनोद', व्याधि निकंदन करण प्रमोद ।
'वैद्यविनोद' इह दूगा कीया, सज्जन देखि सुखी होइ रहीया ।।60।। इस ग्रंथ की रचना-समाप्ति सं. 1726 (1669 ई.) बसंत ऋतु में वैशाख पूर्णिमा को हुई थी। उस समय मुगल-शासक औरंगजेब का शासन था ।
'रस6 दृग2 सागर7 शशि। भयौ, रित वसंत वैसाख । पूरणिमा शुभ तिथि भली, ग्रथ-समाप्ति इह भाख ।।691। सहिन साहिपति राजतो, 'औरंगजेब' नरिंद ।
तास राज में ए रच्यो, भलो ग्रन्थ सुखकंद ।। 700' उस समय खरतरगच्छ के आचार्यपद पर जिनचंद्रसूरि प्रतिष्ठित थे। लेखक ने लिखा है ---
'गछनायक है दीयता, श्री 'जिनचंद' राजान ।
सोभागी सिर सेहरी, वंदें सकल जिहांन ।।711।' (ग्रंथांत) इसकी रचना मरोटकोट (बीकानेर राज्य) में हुई थी।
'मरोटकोट शुभ थान है, वश लोक सुखकार ।
ए रचना तिहां किन रची, सबही कु हितकार ।। 72।।' ग्रथ की पुष्पिका में ग्रंथकार ने अपने गुरु पद्मरंगणि का विशेषण 'वणारस' (?) बताया है--
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