Book Title: Jain Aayurved Ka Itihas
Author(s): Rajendraprakash Bhatnagar
Publisher: Surya Prakashan Samsthan

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Page 164
________________ सामरोग में कर्षणचिकित्सा और निराम अवस्था में वृहण चिकित्सा करनी चाहिए। पुनः, रोगियों की छः प्रकार से चिकित्सा करना बताया गया है 'अथ रोगिणां षट् चिकित्सा लिख्यते-चिकित्सामृतसागरात्' निवात-निलयं शैय्या उष्णनीरं च लंघनं । . पथ्यं विलंघनं चैव चिकित्सा प्रकीर्तिता ।।60।। उक्त छः प्रकार की चिकित्सा-निवातगृह, शैय्या, उष्णजल, लंघन, पथ्य और विलंघन का लगभग 218 (श्लो. 60 से 278) पद्यों में वर्णन किया गया है। ज्वर के अन्त में शक्त्यनुसार घृतपान कराना बताया है। इसके बाद ज्वरी के लिए नियमों का निर्देश है। इस ग्रन्थ में अनेक ग्रंथों से मत व वचन उद्धृत हैं1 चिकित्सारत्नभूषण 17 वृद्धसुश्रुत 2 वैद्यसंजीवन 18 सिद्धांतशिरोमणि 3 वैद्यविनोद 19 सुषेण-ग्रन्थ-चित्तोत्सव 4 ज्वरतिमिरभास्कर 20 भेड 5 भावप्रकाश 21 सूपकारनथ 6 कालज्ञान 22 क्षेमकुतूहल 7 वैद्यसर्वस्व 23 टोडरानंदग्रंथ 8 चिकित्सामृतसागर 24 अमृतसागर 9 वंगसेन 25 भिषक्चक्रचित्तोत्सव 10 सुश्रुत 26 दामोदरग्रंथ 11 वाग्भट 27 माधवनिदान 12 वैद्यकसारसंग्रह 28 लक्ष्मणोत्सव 13 चरक 29 गारूडीसंहिता 14 हितोपदेश 30 आनंदमाला 15 चक्रदत्त 31 तत्रान्तर 16 वृद्धवृद 32 आचार्यमत ' कुछ ह. प्रतियों में ग्रन्थ के अन्त में लिखा मिलता है कि संवत् 1885 भाद्रपद में में 'शंकर' नामक ब्राह्मण ने इसका संशोधन किया था शरेभेन्दुभाग्वर्षे (5881-1885) भाद्रे माम्य सिते दले । शंकरस्य तिथी चन्द्रे 'पथ्यलंघननिर्णयः ॥ शंकराख्येण विप्रेण शोधितो बुध्यतां बुधैः ।' आयुर्वेद चिकित्सा में रोगों के विशिष्ट पथ्य स्वीकार किये गये हैं। ज्वरों में विविध पथ्यों के ज्ञान के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। [154]

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