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(यति) थे। यह आचार्य जिनदत्तसूरि की परम्परा में हुए थे। संभवतः इनको जयपुर के महाराजा 'जयसिंह द्वारा राजसम्मान प्राप्त हुआ था। इनका निवासस्थान भी जयपुर ही रहा। इनके गुरु उपाध्याय 'दयातिलक' स्वयं कवि और संयमीसाधु थे ।
इनके दो वैद्यक ग्रन्थ मिलते हैं-एक, - संस्कृत में – 'पथ्यलङ्घननिर्णय' तथा द्वितीय, राजस्थानी में 'बालतन्त्रभाषावनिका' (बालतन्त्र पर भाषाटीका) है। इनकी अन्य रचनाएं ई. 18वीं शती के द्वितीय चरण की मिलती हैं । 1. पथ्यलकननिर्णय
हस्तप्रतियों में इसके भिन्न-भिन्न नाम मिलते हैं-पथ्यनिर्णय पथ्यापथ्य निर्णय, लंघनपथ्य निर्णय, लंघनपथ्य विचार । परन्तु ग्रन्थकार ने ग्रन्थ में इसका 'पथ्यलङ्घननिर्णय नाम ही दिया है । ग्रन्थ के प्रारंभ में सर्वज्ञ (जिन), शारदा, गणनाथ (गणेश), धन्वन्तरि
और गुरु दयातिलक को नमस्कार किया है। क्योंकि ये पांच विघ्ननिवारक श्रेय करने वाले और यश प्रदान करने वाले हैं
"पंचतान् नमस्कृत्य पंचते विघ्ननिवारकाः ।
पचैते श्रेयःकर्ता च पंचते च यशःप्रदाः ॥' (ग्रंथारम्भ, श्लोक 7) इस प्रसंग में गुरु का स्मरण इन शब्दों में किया है
'महोपाध्याय श्रीपूर्व दयातिलक सद्गुरून् । तच्चरणं प्रणम्यादौ मया ग्रथं विरच्यते ।।6। (ग्रंथारम्भ)
इसके बाद एक पद्य में आत्रेय, धन्वन्तरि, सुश्रुत, नासत्य (अश्विनीकुमार), हारीत, माधव, सुषेण, दामोदर, वाग्भट, दस्र, (? -अश्विनीकुमार), स्वयंभू (ब्रह्मा),
'युगप्रधान जिनदत्तसूरि (जन्म सं. 1132, स्व. सं. 1211 अजमेर में) की परम्परा में 15वीं शती में वा. शीलचन्द्रगरिण हुए। उनके बाद क्रमशः शिष्य-परम्परा इस प्रकार मिलती है - उनके शिष्य वाचक रत्नमूतिगरिण - मेरुसुन्दर उपाध्यायक्षांतिमंदिर-हर्षप्रियगरिण - वा. हर्षोदयगणि-हर्षसार (सम्राट अकबर के समकालीन)-शिवनिधान उपाध्याय । शिवनिधान के दो शिष्य हुए महिमसिंह (अन्य नाम मानकवि), और वा. मतिसिंह। उनके शिष्य रत्नजय (मनोहरजी) हुए। उनकी छत्री फतहपुर में सं. 1733 में बनी। उनके तीन शिष्य हुएवाचक दयातिलक, रत्नवद्धन, वा, भाग्यवर्द्धन। वा, दयातिलक के 8-10 ग्रंथ मिलते हैं। उनके शिष्य वा. दीपचन्द्र हुए। (देखें युगप्रधान जिनदत्तसूरि,
पृ. 69-72) 2 'जैनसिद्धान्त भास्कर' भाग 5, किरण 2, पृष्ठ 115 पर 'लंघनपथ्यविचार' नामक कृति का उल्लेख है। इसका प्रणयनकाल भी सं. 1792 है और रचयिता का नाम श्री 'दीपचन्द' दिया हुआ है।
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