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इनका एक वैद्यकग्रन्थ 'विद्वन्मुखमंडनसा संग्रह' नामक मिलता है। यह एक संग्रह ग्रन्थ है। इसमें चिकित्सा के योगों का संकलन है। रा. प्रा. वि प्र. जोधपुर में ग्रन्थ की अपूर्ण हस्तप्रति प्राप्त हुई है। रोगों की चिकित्सा इसका प्रतिपाद्य विषय है। यह संस्कृत पद्यों में है।
अन्य, 'विनयमेरुगणि' (जो खरतर 'हेमधर्म के शिष्य थे) द्वारा प्रणीत गुजराती, राजस्थानी ‘कवयन्नानी चोपई' (सं. 1689) का उल्लेख मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने 'जैन गुर्जर कविओ', भाग 3, खंड 1, पृ. 9.4 पर किया है ।
रामचन्द्र (1663 से 1693 ई.) यह खरतरगच्छीय यति थे। इनके गुरु वाचनाचार्य 'पद्मरंगगणि' थे। पद्मरंग के गुरु 'पद्मकीर्ति' हुए और पद्मकीर्ति के गुरु जिनसिंहसूरि हुए। इनकी बहुत प्रतिष्ठा थी। दिल्ली का मुस्लिम शासक 'सलेमशाह (सलीमशाहसूर)' जिनसिंहसूरि से प्रभावित हआ था और उन्होंने अपने उपदेशों से बादशाह को दयावान् बना दिया था। उनको मूगल सम्राट 'अकबर' और 'सलीम दोनों द्वारा भी सम्मान प्रदान किया गया था। रामचन्द्र यति 'औरंगजेब' के शासनकाल में मौजूद थे । अपनी गुरु-परम्परा को लेखक ने निम्न पंक्तियों में स्पष्ट किया है
'युगवर श्री जिनसिंहजी' खरतर गच्छ राजांन । शिष्य भए ताके भले, 'पदमकीर्ति' परधान ।।3। । ताके विनय 'वणारसी, पदमरंग' गुणराज ।
'रामचन्द्र' गुरु देव कों, नीकै प्रणये आज ।।4।। (वैद्य विनोद, ग्रन्थारम्भ) 'वैद्यविनोद' के अन्त में रामचन्द्र यति ने 'कविकुलवर्णन चौपईयों' में निम्न वर्णन दिया है
'गरुआ 'खरतरगछि' सिणगार, जांण जाकु सकल संसार । जिनके साहिब श्री 'जिनसिंघ', धरा मांहि हुए नरसिंघ ।।64।। 'दिल्लीपति श्री साहि सलेम', जाकु मान्यों बहु धरि प्रेम । बहु तिद्या जिनकु दिखलाय, दयावान कीने पातसाहि ।।6511 शिष्य भले जिनके सुखकार, 'पदमकीरति' गुण के भंडार । ताके शिष्य महा सुखदाई, सकल लोक में सोभ सवाई ॥66।। चाचनाचार्य श्री ‘पदमरंग', बहु विद्या जांने उछरंग । चिर जीवी ध्र रवि चंद, देख्यां उपज अतिहि आणंद ।।67।।
(वैद्यविनोद, ग्रंथांत) यद्यपि इनके ग्रंथों में इनके निवास स्थान का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता.
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