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धर्मवद्धन या धर्मसी (1683 ई.) धर्मवर्द्धन का जन्म नाम 'धर्मसी' या 'धर्मसिंह' था, जो उनकी अनेक रचनाओ में मिलता है। दीक्षा होने पर इनका नाम 'धर्मवर्द्धन' रखा गया । इनका विशेष परिचय नहीं मिलता। राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में इनका जन्म होना ज्ञात होता है। क्योंकि भ्रमण और विहार इसी क्षेत्र के अनेक ग्रामों और नगरों में हुआ था। इनका जन्म सं. 1700 के लगभग हुआ था और दीक्षा सं. 1713 में खरतरगच्छ के आचार्य जिनचंद्रसूरि के द्वारा हुई थी। तब इनका धर्मवर्द्धन नाम रखा गया और इनको मुनि विजय हर्ष का शिष्य बना दिया गया था। अपने विद्यागुरु विजयहर्ष के पास रहकर इन्होंने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया।
इन्होंने अपनी रचनाओं में अपनी गुरु-परम्परा इस प्रकार लिखी है
जिन भद्रसूरि शाखा के उपाध्याय साधुकीर्ति - साधुसुदर- वाचक विमलकीर्तिविमल चन्द्र- विजयहर्ष-धर्मवद्धन। साधुकीति का काल सं. 1611 से 1642 है । यह अकबर के समकालीन थे ।
सं. 1740 में दीक्षागुरु जिनचन्द्रसूरि ने धर्मवर्द्धन को 'उपाध्याय' पद प्रदान किया। बीकानेर के महाराजा सुजानसिंह इनसे बहुत प्रभावित थे। संभवतः इनको राज्य-सम्मान प्राप्त था।
दीक्षा के बाद धर्मवर्द्धन अधिकांश काल तक गच्छनायक 'जिनचंद्रसूरि' और उनके स्वर्गस्थ होने पर गच्छनायक पद पर आसीन 'जिनसुखसूरि' के पास 'रिणी' (बीकानेर क्षेत्र में) रहे। इसके बाद बीकानेर में आकर रहने लगे। यहीं सं. 1783-84 में इनका स्वर्गवास हो गया। बीकानेर के रैलदादाजी (गुरुमंदिर) में सं. 1784 की बनी हुई इनकी छत्री विद्यमान है ।
____ इनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। संस्कृत, राजस्थानी और हिन्दी में इनकी रचनाएं मिलती हैं। सिंधी में भी दो स्तवन हैं। इनके ग्रंथों का संपादन अगरचन्द नाहटा ने 'धर्मवद्धन ग्रन्थावली' में बीकानेर से सं. 2017 में किया है।
वैद्यक पर इनकी 'उभक्रिया' नामक कृति उपलब्ध है । डंभक्रिया
यह अग्निदाह प्रक्रिया पर 21 पद्यों में विरचित छोटी सी रचना है। अग्नि से दाह करने (डामने) की क्रिया आयुर्वेद की शल्यचिकित्सा का अन्यतम भाग है। गांवों
, -जैन गुर्जर कविप्रो, भाग 2, पृ. 339-346 -अगरचन्द नाहटा : राजस्थानी साहित्य और जैनकवि धर्मवर्द्धन, शीर्षक लेख,
'राजस्थानी' वर्ष 2, अंक 2, पृ. 1-221 -अगरचन्द नाहटा, 'धर्मवद्धनग्नथावली, बीकानेर', सं. 2017 ।
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