________________
में आज भी यह प्रचलित है। विभिन्न रोगों में शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों पर अग्निकर्म करने का विधान मिलता है। इस ग्रन्थ में भी यह क्रिया बतायी गई है। 'डंभ' शब्द 'डामने' या 'डांभने' के अर्थ में है। इसे वाग्भट' के वर्णन के आधार पर भाषा में पद्यबद्ध कर लिखा गया है। इससे ज्ञात होता है कि धर्मवर्द्धन इस प्रक्रिया के ज्ञाता थे और उन्हें अग्नि-कर्म चिकित्सा का अच्छा अनुभव हुआ था। अनेक रोगों में अग्निकर्म कहां और कैसे किया जाता है-इसका इस ग्रन्थ में वर्णन है । ग्रन्थारम्भ में लेखक ने लिखा है
'शंकर गणपति सरस्वती, प्रणमुसब सुखकार । वैद्यानिके उपकारकु, अग्निकर्म कहु सार ।। 1 ।। जो 'चरकादिक' ग्रन्थ में, विविध कह्यौ विस्तार । 'वाग्भट' तैं में कहुं, भाषा बंध प्रकार ।।2।।
इसमें 24 रोगों पर 'दंभक्रिया' बतायी गयी है-(पद्य 3) - 1. ज्वर, 2. सन्निपात, 3. अतिसार, 4. संग्रहणी, 5. पांडु. 6. गोला, 7. शूल, 8. हृदयरोग, 9. श्वास, 10. कास, 11. रक्तस्राव, 12. शीर्षशूल, 13. नेत्ररोग, 14. उन्मादवात, 15. कटीवात, 16. शीतांगता, 17. मृगीवात, 18. कंपवात, 19. शोफ, 10. उदर, 21. जलोदर, 22. अंडवृद्धि, 2 3. धनुर्वात आदि ।
ग्रन्थ का रचनाकाल संवत् 1740 (168 3 ई.) विजयादशमी दिया है - 'सतरै चालीस 'विजयादशमी' दिने,
'गच्छ खरतर' जगि जीत सर्व विद्याजिने । “विजयहर्ष' विद्यमान शिष्य तिनके सही,
परिहां, कवि 'धर्मसी' उपगारै 'दंभक्रिया' कही ।।21।।
लक्ष्मीवल्लभ (1684 ई., सत्रहवीं शती का उत्तरार्ध)
राजस्थानी साहित्य के क्षेत्र में जैन यति लक्ष्मीवल्लभ का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। इनके जन्मस्थान, जन्मसंवत्, वंश, माता-पिता और गृहस्थ जीवन का कोई पता नहीं चलता। इनका मूल जन्म का नाम 'हेमराज' तथा काव्य में उपनाम 'राजकवि' था। इनका जन्म सं. 1690 से 1703 के बीच होना माना जाता है। संभवतः इन्होंने सं. 1707 में दीक्षा ली थी। इनकी कृतियों में सर्वप्रथम 'कुमारसंभववृति' का रचनाकाल सं. 1721 मिलता है। इनके शिष्य शिववर्द्धन को सं. 1713 में दीक्षा दी गई थी। इनकी अन्तिम रचना सं. 1747 में हिस्सार (पंजाब) में लिखी हुई मिलती है। इनकी मृत्यु सं. 1780 के लगभग मानी जाती है। इनके शिष्यों में शिववर्घन और हर्षसमुद्र मुख्य माने जाते हैं ।
ये मारवाड़ या बीकानेर क्षेत्र के निवासी थे। इनका सारा समय बीकानेर,
[ 134