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शाखामांहि अति भली, 'पालीताणी शाखा' गुण निलो ।
'पालिताचार्य' कहीई जेह, हूआ गछपति जे गुणगेह 119511
इसके बाद इस शाखा के पुष्यतिलकसूरि से स्वयं लेखक (नयनशेखर ) तक की परम्परा दी गई है ।
इनकी वैद्यक पर 'योगरत्नाकर चोपई' नामक कृति मिलती है । है । यह ग्रन्थ गुजराती भाषा में चोपई छंद में लिखा हुआ है । 1736 (1679 ई.) श्रावण शुक्ल 3 बुधवार को पूर्ण हुई थी
स
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'संवत सतर छत्री सई' जांणि, उत्तम श्रावण मास वर्षाणि ।
सुकलपक्ष तिथि त्रीतिया वली, बुध्धवारई शुभवेला भली ।। ' ( 91, ग्रंथांत )
यह अप्रकाशित इसकी रचना
देसाई ने भावनगर के श्री कस्तुरसागरजी भंडार की हस्तलिखित प्रति ( लि. का . सं. 1836) का उद्धरण दिया है । इस ग्रंथ में 141 पत्र और 9000 श्लोक हैं । वैद्यक पर यह चोपई बद्ध उत्तम विस्तृत कृति है ।
1 जैनगुर्जर कविप्रो, भाग 2, पृ. 351
महिमसमुद्र ( जिनसमुद्रसूरि (1680 ई. के लगभग )
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दीक्षावस्था में साधु पद का
यह श्वेताम्बर की बेगड़शाखा के जैनयति ( भट्टारक ) थे । यह श्रीमालजातीय शाह हरराज और लखमादेवी के पुत्र थे । इनका निवास मारवाड़ क्षेत्र जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर ) में कहीं था । इनका जन्म सं. 1670 के लगभग हुआ था । इनकी दीक्षा सं. 1682 के लगभग हुई थी । नाम 'महिमसमुद्र' था । इनके गुरु 'जिनचन्द्रसूरि' थे । सं. 1713 में 'श्वेताम्बरी बेगड़गच्छ' के आचार्य 'जिनचन्द्रसूरि' का स्वर्गवास होने पर ये उनके पट्टधर 'आचार्य' बने और उनतीसवर्ष तक गच्छ का नेतृत्व किया। तब इनका नाम 'जिनसमुद्रसूरि' प्रसिद्ध हुआ । सं 1741 कार्तिक सुदि 15 को वर्द्धमपुर में 70 वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हुआ । अपने दीर्घकालीन जीवन में इन्होंने जोधपुर, सिंध, जैसलमेर आदि क्षेत्रों में अनेक स्थानों पर विहार किया । बताया जाता है कि इन्होंने अपने जीवनकाल में सवा लाख श्लोक प्रमाण ग्रन्थ रचे थे । नाहटाजी ने इनके छोटे-बड़े 35 ग्रंथों का उल्लेख किया है। इनका रचनाकाल सं. 1697 से 1740 तक है । इनके ग्रन्थों की प्रतिलिपियां मुख्यतया जैसलमेर के भंडारों में प्राप्त हुई हैं । इनके सम्प्रदाय के साधुओं की मुख्य गद्दी जैसलमेर
ही है। इस विशाल साहित्य से इनके गम्भीर और बहुमुखी ज्ञान तथा कवित्वशक्ति का परिचय मिलता है । बेगड़गच्छ में सं. 1726 में जिनसमुद्रसूरि से नयी शाखा चली । इनको जैसलमेर के रावल अमरसिंह ने 'मानपटोली' और 'उपाश्रय' प्रदान
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