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'श्री विजयसेन' तस पटधरु, ज., सकल सूरिसिरताज, सा. शमदम विद्यागुणनिलो, ज., सकल सूरि सिरताज, सा. 2 तस पट दीपक जागि जयो, ज. श्री विजयदेवसूरिंद, सा. तपजप किरिया गुणनिलो ज. प्रणमु पद अरविंद, सा. 3 तस गछ सवि कवितिलो ज., लक्ष्मीरुचि' कविराय, 'विजयकुशल' कवि तेहनो, सीस 'उदयरुचि' कहिवाय । 4 शिष्य सत्तावीस तेहनें, तप जप विद्यावंत श्री हितचि उपभ्मायनो, सीस कर जोकि षभणंत । 5 ग्रंथागर अक्षर गण्यो, बारसयां पंचास, . श्री बगलामुखी ससिमुखी, ध्यान धरी मनिं तास । 6 सा सामिनी सुपसाउले, सिद्धांतसार ए ग्रंथ, रसिक लोक वल्लभ रचिओ कहे 'हस्तिरुचि' निग्रन्थ । 7 संवत 'सतर सत्तरोत्तरि' विजय दशमी शुभदिन्न । 'अमदाबाद' आल्हादस्यु, श्री संघ सहु सुप्रसन्न । 8' अंत में लिखा है-तपगच्छि दीपे कुमति चीपे उपाय ‘हितरुचि' हित करो। तस सीस 'हस्तिरुचि' प्रेम प्रमाणे सकल मंगल जय करो॥
(जैन गुर्जर कविओ, भाग 2, पृ. 185-86 पर उद्धृत) तपागच्छ में 'हीरविजयसूरि' हुए, जिन्होंने बादशाह अकबर को प्रतिबोध दिया था। उनके पट्टधर 'विजयसेन सूरि' हुए, उनके पट्टधर 'विजयदेवसूरि हुए । उनके गच्छ में कविओं की परम्पर. में 'लक्ष्मीरुचि' कवि हुए, उनके शिष्य 'विजयकुशल' कवि हुए, उनके शिष्य 'उदयरुचि'कवि हुए। उदयरुचि के सत्ताईस शिष्य थे जो जप, तप और विद्या में निपुण थे । उनमें से एक हितरुचि हुए। उनके ही शिष्य हस्तिरुचि हुए । ये प्रकाण्ड विद्वान और प्रसिद्ध चिकित्सक थे । स्वयं को इन्होंने 'कवि' कहा है।
हस्तिरुचि को गुजराती भाषा में 'चित्रसेन पद्मावति रास' नामक काव्य-रचना मिलती है । इसकी रचना कवि ने अहमदाबाद में सं. 1717 (1660 ई.) विजयादशमी के दिन पूर्ण की थी। निश्चितरूप से कहा नहीं जा सकता कि हस्तिरुचि किस क्षेत्र के निवासी थे। जैन मुनि विहार करते हुए अन्यत्र भी जाते रहते हैं। कुछ इन्हें मारवाड़ क्षेत्र का मानते हैं । परन्तु इनका गुजरातनिवासी होना प्रमाणित होता है ।
वैद्यक पर इनकी दो रचनाएं मिलती हैं-1 वैद्यवल्लभ और 2 वन्ध्याकल्पचौपई
1 दुर्गाशंकर केवलराम शास्त्री ने लिखा है-'यह ग्रन्थ सं. 1670 में रचा गया था,
ऐसा गोंडल के इतिहास में लिखा है, कर्ता का नाम हस्तिरुचि के स्थान पर हस्तिसूरि लिखा है।' (प्रायुर्वेदनो इतिहास, पृ. 244)
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